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ध्यानयोग-विधि-२
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और आनन्द का कमल खिलने दें।
यदि हम अपनी मूल शक्ति को हृदय-प्रदेश तक उठा पाने में सफल हो गये तो मानो हम अपने विकारों से, निम्नवृत्तियों, अशुद्ध चेतना और अशुभ लेश्याओं से कमलवत् ऊपर उठने लगे हैं और अब आगे की यात्रा सुगम हो गई है । क्रोध आदि शक्तियां, करुणा और पवित्रता में रूपान्तरित हुई हैं। दीर्घ एवं गहरे श्वास-प्रश्वास के माध्यम से थोड़ा और प्रयास करके शक्ति को कंठ पर, ऊर्ध्व-शक्ति-केन्द्र/शुद्धि-चक्र तक ले आएँ। यहां आकर शक्ति गहन शांति और प्रसन्न मौन के रूप में अभिव्यक्त होगी। कंठ से सुषुम्ना तक फैले हुए ऊर्जा-क्षेत्र पर प्राणों के केन्द्रीकरण से इंद्रियगत मौन का विकास होता है । लेकिन अभी यहीं रुकना नहीं है। अभी चेतना का और उत्थान आवश्यक है। आगे बढ़ते जाइये और दोनों भौंहों के बीच तिलकवाले स्थान के लगभग एक इंच भीतर ऊर्जा का समीकरण कीजिए। अपनी चेतना को हर तरफ से हटाकर आज्ञा-चक्र पर केंद्रित कीजिए। बिंदु-रूप आत्म-ज्योति को साकार कीजिए और उस बिंदु को विराट करते-करते संपूर्ण ललाट में, पूरे मस्तिष्क में फैल जाने दें। प्रकाश की एक ज्योति-शिखा को मस्तक के ऊपरी भाग बोधिकेन्द्र सहस्रार तक पहुंचने दें। अधिकतम गहरे दीर्घ श्वास-प्रश्वास से चैतन्य-जागरण के इस चरण को पूर्ण कीजिए। पंचम चरण : मुक्ति-बोध
१० मिनट . और अंत में शरीर, मन, प्राण को शिथिल छोड़कर हर प्रयास से मुक्त होकर अन्तरलीन हो जाइये - हृदय में आत्मस्थ । डूब जाइये भीतर के अनन्त आकाश में, मुक्ति के अपरिसीम आनंद में, अर्थात् गहन विश्राम, परम मौन, अपूर्व शान्ति, परमानन्द दशा।
सहज स्थिति होने पर परमात्म-रस पगे भजनों का गायन-रसास्वादन करें और भक्तिभाव में रचे-पचे सांध्यकालीन सत्र का समापन करें।
अंत में गुरु-वंदना करें और हाथों की कमल-मुद्रा बनाकर भावार्घ्य गुरु-चरणों में अर्पित करते हुए साधनापथ पर आगे बढ़ने के लिए उनका मंगल आशीष ग्रहण करें । आसन से खड़े हों, और सभी को करबद्ध अभिवादन कर
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