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इक साधे सब सधे
बुद्ध के जीवन की घटना है कि एक दिन उन्हें प्यास लगी और उन्होंने आनंद से कहा, 'वत्स, मुझे प्यास लग रही है । यहाँ पास में जो सरिता बह रही है उसमें से जल भर लाओ।' आनंद वहाँ गए। उन्होंने देखा कि जहाँ से वे पानी लेना चाहते हैं वहाँ से अभी-अभी कुछ बैलगाड़ियाँ निकली थीं। अत: पानी गंदा हो रहा था । आनंद भगवान के पास पहुँचे और कहा, 'भन्ते उस नदी का पानी तो बहुत गंदा है । आज्ञा दें तो किसी दूसरी झील या सरोवर से पानी ले आऊँ।' 'नहीं, मुझे तो उसी सरिता का पानी पीना है।' आनंद फिर गए। देखा, पानी गंदला है। पहले से कम है पर गंदा तो है । वापस आकर कहा, 'भंते ! पानी पीने योग्य नहीं है।' भगवान मुस्कुराए । कहा, 'आनंद जाओ, इस बार पानी साफ मिलेगा।' जाकर आनंद जल भर लाए। भगवान ने पूछा, 'वत्स कुछ समझे ?' 'नहीं, भंते मैं तो कुछ भी नहीं समझा।' 'तुम बार-बार आए-गए यह तुम्हारा पुरुषार्थ था। लेकिन पानी किसी ने साफ नहीं किया। सिर्फ धैर्य धारण किया मन के प्रति । आतुरता न रखी। धीरे-धीरे गंदगी जम गई और निर्मल पानी तैर गया।' ऐसे ही जीवन भी धीरे-धीरे बदलता है, रूपान्तरित होने लगता है और जिस तरह पानी पीने लायक हो जाता है वैसे ही जीवन भी जीने योग्य हो जाता है।
तब जीवन में जीवंतता होती है, आनंद का उत्सव रहता है, अमृत महोत्सव बनता है । अंतिम बात, मन से मुक्त हो जाओ, मन को मुक्त हो जाने दो। नियति में जैसा जो होना है उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं, उसके प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं। सहज, सौम्य रहकर अपना जीवन जिओ। तब वास्तविक अर्थों में जीना होगा, यही जीने की कला बन जाएगी । वह आत्मवान है जो मन से मुक्त है, शांत है । वह जीवन का तपस्वी है । जीना स्वयं एक तपस्या है।
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