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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । धर्मण्येकस्मिन् धर्मिणि निष्णातस्यांतेवासिजनस्य तदवबोधायिभिः कैश्चिद्धमैस्तमनुशासतां सूरीणां धर्मधार्मिणां स्वभावतोऽभेदेपि व्यपदेशतो भेदमुत्पाद्य व्यवहारमात्रेणैव ज्ञानिनो दर्शनं ज्ञानं चारित्रमित्युपदेशः । परमार्थतस्त्वेकद्रव्यनिष्पीतानंतपर्यायतयैकं किंचिन्मिलिण दंसणं शुद्धनिश्चयनयेन न पुनर्ज्ञानं न चारित्रं न दर्शनं । तर्हि किमस्तीति चेत् । जाणगो ज्ञायकः शुद्धचैतन्यस्वभावः । सुद्धो शुद्ध एव रागादिरहित इति । अयमत्रार्थः । यथा निश्चयनयेनाभेदरूपेणाग्निरेक एव पश्चाद्भेदरूपव्यवहारेण दहतीति दाहकः पचतीति पाचकः प्रकाशं करोतीति प्रकाशकः इति व्युत्पत्त्या विषयभेदेन त्रिधा भिद्यते । तथा जीवोपि निश्चयरूकहे जाते हैं । निश्चयकर [ज्ञानं अपि न ] ज्ञान भी नहीं है [चरित्रं न ] चारित्र भी नहीं और [ दर्शनं न ] दर्शन भी नहीं है । ज्ञानी तो एक [ज्ञायकः] ज्ञायक ही है इसीलिये [शुद्धः] शुद्ध कहा गया है । टीका-इस ज्ञायक आत्माके बंधपर्यायके निमित्तसे अशुद्धपना है वह तो दूर ही रहो, इसके दर्शन ज्ञान चारित्र भी विद्यमान नहीं हैं । क्योंकि निश्चयकर अनंतधर्मा जो एक धर्मी वस्तु उसको जिसने नहीं जाना ऐसे निकटवर्ती शिष्यजनको उस अनंतधर्म स्वरूप धर्मीके बतलानेवाले जो कोई धर्म उनकर शिष्यजनोंको उपदेश करते हुए आचार्योंका ऐसा कथन है कि धर्म और धर्मीका यद्यपि स्वभावसे अभेद है तौभी नामसे भेद होनेके कारण व्यवहार मात्रकर ज्ञानीके दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है । परंतु परमार्थसे देखाजाय तो एक द्रव्यकर पिये गये अनंतपर्यायपनेकर एकमेक मिले हुए अभेदस्वभाव वस्तुको अनुभव करनेवाले पंडित पुरुषोंके दर्शन भी नहीं ज्ञान भी नहीं और चारित्रभी नहीं, एक ज्ञायक हो वोही शुद्ध है ॥ भावार्थ-इस शुद्ध आत्माके कर्मबंधके निमित्तसे अशुद्धपना आता है यह बात तो दूर ही रहे, इसके दर्शन ज्ञान चारित्रका भी भेद नहीं है । क्योंकि वस्तु अनंतधर्मरूप एकधर्मी है । परंतु व्यवहारी जन धर्मोको ही समझते हैं धर्मीको नहीं जानते इसलिये वस्तुके कुछ असाधारण धर्मोको उपदेशमें लेकर अभेदरूप वस्तुमें भी धर्मोंके नामरूप भेदको उत्पन्न करके ऐसा उपदेश करते हैं कि ज्ञानीके दर्शन है, ज्ञान है, चारित्र है । अभेदमें भेद करनेसे यह व्यवहार है । परमार्थसे विचारा जाय तो अनंत पर्यायोंको एकद्रव्य अभेदरूप पिये हुए बैठा है इसकारण भेद नहीं है । यहां कोई कहे कि पर्याय भी द्रव्यका ही भेद है अवस्तु तो नहीं है उसे व्यवहार किसतरह कहसकते हैं ? उसका समाधान । यह तो सच है परंतु यहां द्रव्यदृष्टिकर अभेदको प्रधानकर उपदेश है इसलिये अभेद दृष्टि में भेद गौण कहनेसे ही अभेद अच्छीतरह मालूम होसकता है, इसकारण भेदको गौणकर व्यवहार कहा है । यहां ऐसा अभिप्राय है कि भेद दृष्टिमें निर्विकल्प दशा नहीं होती और सरागीके जबतक रागादिक दूर नहीं होते तबतक विकल्प वना रहता है । इसकारण भेदको गौणकर अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव कराया गया