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समयसारः ।
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कत्वप्रसिद्धेः दाह्यनिष्कनिष्ठ दहनस्येवाशुद्धत्वं यतो हि तस्यामवस्थायां ज्ञायकत्वेन यो ज्ञातः स स्वरूपप्रकाशनदशायां प्रदीपस्येव कर्तृकर्मणोरनन्यत्वात् ज्ञायक एव ॥ ६ ॥ दर्शनज्ञानचारित्रवत्त्वेनाशुद्धत्वमिति चेत्;
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ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरिन्त दंसणं णाणं । णविणाणं ण चरितं ण दंसणं जाणगो सुद्धो ॥ ७ ॥ व्यवहारेणोपदिश्यते ज्ञानिनश्चारित्रं दर्शनं ज्ञानम् ।
नापि ज्ञानं न चारित्रं न दर्शनं ज्ञायकः शुद्धः ॥ ७ ॥
आस्तां तावद्वंधप्रत्ययात् ज्ञायकस्याशुद्धत्वं दर्शनचारित्राण्येव न विद्यते । यतोनंतजो सो दु सो चेव ज्ञाता शुद्धात्मा यः कथ्यते स तु स चैव ज्ञातैवेत्यर्थः ॥ ६ ॥ इति स्वतंत्रगाथाषट्केन प्रथमस्थलं गतं । अथानंतरं तथा प्रमत्तादिगुणस्थानविकल्पा जीवस्य व्यवहारनयेन विद्यते शुद्धद्रव्यार्थिकनिश्चयेन न विद्यते तथा दर्शनज्ञानचारित्रविकल्पोपीत्युपदिशति ;ववहारेण सद्भूतव्यवहारनयेन उवदिस्सदि उपदिश्यते कथ्यते । कस्य । णाणिस्स ज्ञानिनो जीवस्य । किं । चरित्त दंसणं णाणं चारित्रदर्शनज्ञानस्वरूपं । णवि णाणं ण चरितं
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द्रव्यकी दृष्टि में यह भी पर्यायार्थिक ही है इसलिये व्यवहारनय ही है - ऐसा आशय जानना | यहां ऐसा भी जानना कि जिनमतका कथन स्याद्वादरूप है इसलिये शुद्धता और अशुद्धता दोनों वस्तुके धर्म हैं । अशुद्धनयको सर्वथा असत्यार्थ ही मानना । जो वस्तुधर्म है वह वस्तुका सत्त्व है, परद्रव्यके संयोगसे हुआ ही भेद है । यहां अशुद्धयको हेय कहा है उस अशुद्धनयका विषय संसार है । उसमें आत्मा केश भोगता है जब आप परद्रव्यसे भिन्न होवे तब संसार मिटे और तभी क्वेश मिटे | इसतरह दुःख मेंट को शुद्धयका प्रधान उपदेश है । और अशुद्धनयको असत्यार्थ कहने से ऐसा तो नहीं समझना कि यह वस्तुधर्म सर्वथा ही नहीं आकाशके फूलकी तरह है । ऐसे सर्वथा एकांत समझनेसे मिध्यात्व आता है । इसलिये स्याद्वादका शरण शुद्धनयका आलंबन करना चाहिये, स्वरूपकी प्राप्ति होनेवाद शुद्धनयका भी अवलंबन नहीं रहता। जो वस्तुस्वरूप है वह है - यह प्रमाणदृष्टि है । इसका फल वीतरागता है ऐसा निश्चय करना योग्य है | यहांपर जो "प्रमत्त अप्रमत्त नहीं है " ऐसा कहा गया है वह गुणस्थानकी परिपाटीमें छठे गुणस्थानतक तो प्रमत्त कहा जाता है और सातवेंसे लेकर अप्रमत्त है । सो ये सभी गुणस्थान अशुद्धनयकी कथनी में हैं, शुद्धनयसे आत्मा ज्ञायक ही है ॥ ६ ॥ आगे फिर कहते हैं जो दर्शन ज्ञान चारित्र – ये आत्माके धर्म कहे गये हैं सो ये तीन भेद हुए इसलिये इन भेदरूप भावोंकर भी इसके अशुद्धपना आसकता है ? ऐसे प्रश्नका उत्तररूप गाथासूत्र कहते हैं; - [ ज्ञानिनः ] ज्ञानीके [ चरित्रं दर्शनं ज्ञानं ] चारित्र, दर्शन, ज्ञान—ये तीन भाव [ व्यवहारेण ] व्यवहारकर [ उपदिश्यते ]
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