Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
View full book text
________________
श्रवणधर्म में तीर्थकर परम्परा और भ. महावीर तथा महावीर चरित-साहित्य...... 19 त्याग कर रहे हैं, उसे मैं भी नहीं लेना चाहता और आपके साथ ही मैं भी संयम धारण करूँगा।
___ असग कवि ने भ. महावीर के पाँचों ही कल्याणकों का वर्णन यद्यपि बहुत ही संक्षेप में दिगम्बर परम्परा के अनुसार ही किया है, तथापि एक दो घटनाओं के वर्णन पर श्वेताम्बर परम्परा का भी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। उन्होंने भी उन्हीं तेंतीस भवों का वर्णन किया है, जिनका वर्णन उत्तरप राणकार आदि अन्य दिगम्बर आचार्यों ने किया है।
वर्धमानचरित में कुल 19 अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में सर्व तीर्थकरों को प्रथक्-प्रथक् श्लोकों में नमस्कार कर त्रिकालदर्शी तीर्थंकरों और विदेहस्थ तीर्थंकरों को भी नमस्कार कर गौतम गणधर से लगाकर सभी अंगपूर्वधारियों को उनके नामोल्लेख पूर्वक नमस्कार किया है। दूसरे अध्याय में भ. महावीर के पूर्व-भवों में पुरूरवा भील से लेकर विश्वनन्दी तक के भवों का वर्णन है। इसमें देवों का जन्म होने पर वे क्या-क्या विचार और कार्य करते हैं, वह विस्तार के साथ बताया गया है। तीसरे अध्याय में भ. महावीर के बीसवें भव तक का वर्णन है। जहाँ पर कि त्रिपृष्ठ नारायण का जीव सातवें नरक का नारकी बनकर महान दुःखों को सहता है। चौथे अध्याय में भ. महावीर के हरिषेण वाले सताईसवें भव तक का वर्णन है। इसमें तेईसवें भव वाले मृग-भक्षण करते हुये सिंह को सम्बोधन करके चारण ऋद्धिधारी मुनियों के द्वारा दिया गया उपदेश बहुत ही प्रेरक व उद्बोधक है। मुनि के दिये गये धर्मोपदेश को सिंह हृदय में धारण करता है और मिथ्यात्व को महान अनर्थकारी जानकर उसका परित्याग करता है। यथा
मिथ्यात्वेन समं पापं न भूतं न भविष्यति। न विद्यते त्रिलोकेऽपि विश्वानर्थनिबन्धनम् ।।
पांचवें अध्याय में भ. महावीर के नन्द नामक इकतीसवें भव तक का वर्णन है। इसमें भगवान के उन्तीसवें भव वाले प्रियमित्र चक्रवर्ती की विभूति का वर्णन बड़े विस्तार से किया गया है। छठे अध्याय में भगवान के उपान्त्य भव तक का वर्णन किया गया है। भगवान का जीव इकतीसवें