Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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वीरोदय का काव्यात्मक मूल्यांकन उर्वोरेव विलोमताऽप्यधरता दन्तच्छदे केवलं । शंखत्वं निगले दृशोश्चपलता नान्यत्र तेषां दलम् ।। 48 ।। वामानां सुबलित्रये विषमता शैथिल्यमङ्घावुताप्यौद्धत्यं सुदृशां नितम्बवलये नाभ्यण्डके नीचता।। शब्देष्वेव निपातनाम यमिनामक्षेषु वा निग्रहश्चिन्ता योगिकुलेषु पौण्ड्रनिचये सम्पीडनं चाह ह।। 49 ।।
-वीरो.सर्ग.21 उस नगर में कठिनता केवल स्त्रियों के स्तनमण्डल में ही दृष्टिगोचर होती है। दोषाकरता (चन्द्रतुल्यता) स्त्रियों के सुन्दर मुख में ही दिखती है। वक्रता उनके सुन्दर बालों में ही है। कृशता केवल स्त्रियों के कटिप्रदेश में ही है। विलोमता स्त्रियों की जंघाओं में ही है। अधरता केवल ओठों में ही है। शंखपना कण्ठ में ही है और चपलता दृष्टि में ही है। विषमता स्त्रियों की त्रिवली में ही है। गहराई नाभि मण्डल में ही है। निपात शब्दों में है। संयमी व्यक्ति ही इन्द्रिय-निग्रह करते हैं। योगी-समूह ही चिन्तन करता है। सम्पीड़न पौण्ड्रसमूह में ही है। व्यक्ति एक दूसरे को पीड़ा नहीं पहुंचाते हैं। 18. संसृष्टि अलंकार लक्षण - ‘सेष्टा संसृष्टिरेतेषां भेदेन यदिह स्थितिः ।
काव्य में दो या अधिक अलंकारों के भेद से जो स्थिति है वह संसृष्टि कही गई है।
आचार्यश्री ने अनुप्रास अलंकार का बहुत प्रयोग किया है। अनुप्रास के साथ ही साथ अन्य अलंकार भी निरपेक्ष रूप से स्थित हैं। जैसे - मृगीदृशश्चापलता स्वयं या स्मरेण सा चापलताऽपि रम्या। मनोजहारांगभृतः क्षणेन मनोजहाराऽथ निजक्षणेन ।। 25 ।।
-वीरो.सर्ग.3। प्रस्तुत श्लोक में अन्त्यानुप्रास और यमक की संसृष्टि स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही है।