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वीरोदय महाकाव्य का सांस्कृतिक एवं सामाजिक विवेचन
योनि का स्वभाव प्रतिपक्षी के साथ दुर्व्यवहार करने का ही होता है। श्रीज्ञानसागर का ज्योतिर्वित् एवं ज्योतिष, दोनों पर ही विश्वास है । उनके अनुसार प्रत्येक शुभकार्य के लिए देवज्ञों से अथवा स्वयं मुहूर्त जान लेना चाहिए। 13
हिन्दू - संस्कृति के सोलह संस्कारों पर उनकी आस्था है। उनके अनुसार नामकरण, विद्यारम्भ, विवाह आदि संस्कार उचित समय पर ही होने चाहिए। जयकुमार और सुलोचना के विवाह के अवसर पर वर को विवाह मण्डप में बुलाना, मन्त्रोचारण पूर्वक पाणि- ग्रहण कराना, बारात का सहर्ष स्वागत करना और हर्षमय विधान सहित वर-वधू को विदा करना आदि बातों का वर्णन यह बताता है कि कवि को प्राचीनकाल से चली आ रही इन परम्पराओं पर पूरा विश्वास है । यथा नृपधाम्नि सुदाम्नि सुन्दरप्रतिसारः खलु कार्यविस्तरः । शयसन्नयनोचितोक्तिभृद् रचितोऽथान्तमितोऽपि तोषकृत् ।। 1 ।। बन्धुभिर्बहुघाऽऽदृत्य मृदुमंगलमण्डपम् | उपनीतः पुनर्भव्यो गुरूस्थानमिवालिभिः ।। 85 ।। -जयो.सर्ग.10 ।
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स्वप्न-दर्शन पर भी अपनी पूर्व - परम्परा के अनुसार उन्हें अत्यधिक विश्वास है । तीर्थंकर की माता जन्म से पूर्व सोलह स्वप्न देखती है और अन्तः केवली की माता पुत्र जन्म से पूर्व पाँच स्वप्न देखती है। महाकवि की आस्था है कि ये स्वप्न उत्पन्न होने वाले पुत्र की विशेषताओं का स्पष्ट संकेत देते हैं ।
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श्री ज्ञानसागर ने व्यक्ति के पूर्वजन्मों को भी माना है । उनके प्रत्येक काव्य में पात्रों के पूर्वजन्मों से सम्बन्धित कथाएँ इसकी पुष्टि करती हैं। ज्ञानसागर जी राजा एवं मुनिजनों को राष्ट्र का सम्माननीय व्यक्ति मानते हैं। राजा जिस मार्ग से भी निकले, प्रजा को उसका स्वागत करना चाहिए । त्याग की साक्षात् प्रतिमा मुनि तो न केवल जनसामान्य के ही, अपितु राजा के भी पूज्य होते हैं । समुद्रदत्तचरित में आचार्यश्री ने लिग
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