Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala

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Page 321
________________ 292 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन __ मनो साहस्सिओ भीमो, दुट्ठस्सो परिधावईं। तं सम्मं तु निगिण्हामि धम्म सिक्खाइ कन्थगं।। आचार्यश्री की जैनधर्म पर दृढ़ आस्था है, उनकी दृष्टि में यह मानव-मात्र के लिए उपयोगी व महत्त्वपूर्ण है। इसके महत्त्व के अनेक प्रमाण कवि ने अपने काव्यों में प्रस्तुत किये हैं। जैनधर्म में सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह ये पाँच महाव्रत कहे गये हैं। इनकी महिमा सभी धर्मों में मान्य है, किन्तु जैनधर्म में इनका कठोरता से पालन करना आवश्यक है। जैनधर्म केवल वानप्रस्थियों के लिये ही नहीं, अपितु गृहस्थों के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। गृहस्थों को सदाचरण, आहार, विहार, अतिथि-पूजन, देवपूजन, आत्मकल्याण आदि अपेक्षित गुणों की शिक्षा देने में यह धर्म पूर्णतः समर्थ है। यह व्यक्ति को अन्धविश्वासों से दूर रहने की भी शिक्षा देता है।' भारतीय संस्कृति में चारों पुरूषार्थों में धर्म को सबसे अधिक महत्त्व दिया गया है। कालिदास ने 'कुमारसंभव' में धर्म को 'त्रिवर्ग' का सार कहा है। धर्म भारतीय संस्कृति का प्राण है। धर्म द्वारा ही भौतिक उन्नति और आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति सम्भव है। महाभारत में धर्म को अर्थ और काम का स्रोत माना है। इसमें कहा है - उर्ध्वबाहु विरौम्येष, न च कश्चित् श्रृणोति मे। धर्मादर्थश्च कामश्च स किमर्थ न सेव्यते।। याज्ञवल्क्यस्मृति, विष्णुस्मृति और मनुस्मृति आदि में और धर्मशास्त्रों में भी चारों पुरूषार्थों में धर्म को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। जो अपने धर्म को छोड़ देता है, धर्म उसका विनाश कर देता है। जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। गीता में भी (अठारहवें अध्याय में) कृष्ण ने अर्जुन को धर्म का महत्त्व बतलाते हुये कहा है श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वभाव-नियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम् ।।

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