Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala

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Page 355
________________ 326 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन सूक्तियाँ - 1. संविदन्नपि संसारी स नष्टो नश्यतीतरः। नावैत्यहो तथाप्वेयं स्वयं यममुखे स्थितम् ।। 10/5 ।। यह संसारी प्राणी "वह नष्ट हो गया" "यह नष्ट हो रहा है" ऐसा देखता-जानता हुआ भी आश्चर्य है कि स्वयं को यम के मुख में स्थित हुआ नहीं जानता है। 2. स्वस्थितं नांजनं वेत्ति वीक्षतेऽन्यस्य लांछनम्। चक्षुर्यथा तथा लोकः परदोषपरीक्षकः ।। 10/7|| आँख अपने भीतर लगे अंजन का नहीं जानती, पर दूसरे के अंजन को झट देख लेती है। इसी प्रकार यह लोक भी पराये दोषों को ही देखने वाला है। किन्तु अपने दोषों को नहीं देखता है। 3. स्वार्थाच्च्युतिः स्वस्थ विनाशनाय परार्थतश्चेदपसम्प्रदायः । स्वत्वं समालम्ब्य परोपकारान्मनुष्यताऽसौ परमार्थसारा।। 17/11 ।। - 'स्वार्थ से भ्रष्ट होना अपने ही विनाश का कारण है और परार्थ (परोपकार) से च्युत होना सम्प्रदाय के विरूद्ध है। अतः मनुष्य को चाहिये कि अपने स्वार्थ को संभालते हुये दूसरों का उपकार अवश्य करे। यही परमार्थ के सारभूत मनुष्यता है। सन्दर्भ - 1. शाकाहार एक जीवनपद्धति - सं. डा. नीलम पृ. 12। 2. वही पृ. 5। 3. डॉ. हीरालाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ. 239-2401

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