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330 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन विवेचन है। जैनागमों में गृहस्थ-धर्म को बहुत महत्त्वपूर्ण माना है। गृहस्थ-धर्म का पालन करने वाले को धर्म, अर्थ, काम का सेवन आगमोक्त रीति से करना आवश्यक बतलाया गया है। पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत का क्रम-क्रम से पालन कर श्रावक धर्म की उत्तरोत्तर वृद्धि करते हुए मुनिधर्म अंगीकार करता है।
वीरोदय महाकाव्य में समोशरण की रचना, दिव्य-ध्वनि का प्रभाव एवं सिद्धान्तों की विवेचना करते हुए भगवान महावीर का मोक्ष गमन एवं पौराणिक आख्यानों का दिग्दर्शन आदि को भी महाकवि ने अपनी लेखनी का विषय बनाया है।
प्रबन्ध के चतुर्थ अध्याय में काव्य का ऋतु-वर्णन माघ के ऋतु-वर्णन के समान प्रभावशाली है। वर्षा-ऋतु का भगवान् के गर्भावतरण के साथ, वसन्त-ऋतु का भगवान् के जन्म के साथ, शीत-ऋतु का भगवान के चिन्तन के साथ, ग्रीष्म ऋतु का भगवान के उग्र तपश्चरण के साथ और शरद-ऋतु का भगवान् महावीर के निर्वाण के साथ वर्णन करके कवि ने ऋतु-वर्णन को एक न: दिशा प्रदान की है। प्रस्तुत महाकाव्य में, ओज, प्रसाद और माधुर्य इन तीनों गुणों का समावेश है। साथ ही काव्य की भाषा-शैली सरल व बोधगम्य है। रसात्मकता काव्य का प्राण है। रसानुभूति के माध्यम से ही सामाजिकों को कर्त्तव्याकर्त्तव्य का उपदेश हृदयंगम कराया जा सकता है। महाकाव्य की रचना का मूल उददेश्य संसार की असारता का परिज्ञान कराके, सारभूत स्वरूप की ओर ध्यान आकृष्ट कर मनुष्य को मोक्ष की ओर उन्मुख करना है।
कवि ने शान्तरस के अतिरिक्त अन्य अंगी रसों की मनोहारी अभिव्यंजना की है। रानी प्रियकारिणी के सौन्दर्य-चित्रण में श्रृंगार-रस, देवगागों के आगमन प्रसंग में हास्य-रस व अदभुत-रस, संसार-दशा के चिन्तन में करूण-रस, भगवान् महावीर की बाल-लीला के प्रसंग में वात्सल्य रस का सुन्दर परिपाक हुआ है। काव्य को गतिशील बनाने के लिए आचार्यश्री ने छन्द-योजना भी प्रस्तुत की है। वीरोदय में 988 श्लोकों को 18 छन्दों में निबद्ध किया गया है। प्रयोग की दृष्टि से उपजाति का