Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala

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Page 331
________________ 302 वीरोदय महाकाव्य और म. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन उन्नत बैल के समान भद्रप्रकृति, मृग के समान सरल, पशुवत् निरीह गोचरी-वृत्तिवाला, पवनवत् निःसंग, सर्वत्र विचरण करने वाला, सूर्यवत् तेजस्वी या सकल तत्त्वप्रकाशक, सागरवत् गम्भीर, मेरूसम अकम्प, चन्द्रसम शान्तिदायक, मणिवत् ज्ञान-प्रभापुंजयुक्त, पृथिवीवत् सहनशील, सर्पवत् अनियत-वसतिका में रहने वाला, आकाशवत् निरालम्बी या निर्लेप तथा सदा परमपद का अन्वेषण करने वाला कहा है - सीह-गय-वसह-मिय–पसु-मारूद-सुरूवहिमंदरिदुं मणी। खिदि-उरगंबरसरिसा परमपय विमग्गथा साहू ।। . -ध.1/1.1.1/31/51 | वैराग्य की पराकाष्ठा को प्राप्त, प्रभावशाली, दिगम्बर रूपधारी, दयाशील, निर्ग्रन्थ, अन्तरंग-बहिरंग गाँठ को खोलने वाला, व्रतों को जीवनपर्यन्त पालने वाला, गुण श्रेणी रूप से कर्मो की निर्जरा करने वाला, तपस्वी, परीषह-उपसर्ग विजयी, कामजयी, शास्त्रोक्त विधि से आहार लेने वाला, प्रत्याख्यान में तत्पर इत्यादि अनेक गुणों को धारण करने वाला साधु होता है। वीरोदय में गुरू/साधु स्वरूप आचार्यश्री ने गुरू/साधु के स्वरूप का निरूपण करते हुये कहा है- “साधु को सूर्योदय होने और प्रकाश के भली-भाँति फैल जाने पर ही सामने भूमि को देखते हुए विचरना चाहिये। वह पक्षी के समान सदा विचरता रहे, किसी एक स्थान का उपभोक्ता न बने। दूसरे जीव का हित जैसे संभव हो, वैसी सद्-उक्ति वाली हित-मित भाषा का प्रयोग करे।" यथामनोवचःकायविनिग्रहो हि स्यात्सर्वतोऽमुष्य यतोऽस्त्यमोही। तेषां प्रयोगस्तु परोपकारे स चापवादो मदमत्सरारेः ।। 27 || कस्यापि नापत्तिकरं यथा स्यात्तथा मलोत्सर्गकरो महात्मा। संशोध्य तिष्ठेद्वमात्मनीनं देहं च सम्पिच्छिकया यतात्मा।। 28 ।।

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