Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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भगवान महावीर के सिद्धान्तों का समीक्षात्मक अध्ययन
307 तत्त्वार्थों का श्रद्धान रूप जो आत्मा का परिणाम है वही मोक्ष का साधन है, क्योंकि वह भव्यों में ही पाया जाता है, किन्तु आलोक, चक्षु आदि के निमित्त से जो ज्ञान होता है, वह साधारणतः सब संसारियों में पाया जाता है। अतः उसे मोक्षमार्ग मानना युक्त नहीं है। आ. कुन्दकुन्द ने लिखा है कि जीव, अजीव, आस्रव, बंध, (पुण्य-पाप) संवर, निर्जरा और मोक्ष को यथार्थ रूप में जानना सम्यक्त्व है।
भूयत्येणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्णपावं च। आसव संवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ।।
-समयसार.गा. 131 आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है कि सत्यार्थ अथवा मोक्ष के कारण स्वरूप देव, शास्त्र गुरू का आठ अंग सहित, तीन मूढ़ता और आठ मद रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। श्री उमास्वामी ने श्रावकाचार में कहा है कि तीर्थकर परमदेव को देव मानना, दयामय धर्म को धर्म मानना और निर्ग्रन्थ गुरू को गुरू मानना सम्यग्दर्शन है। स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कहा है कि - जो लोगों के प्रश्नों के वश से और व्यवहार को चलाने के लिए सप्तभंगी के द्वारा नियम से अनेकांतात्मक तत्त्व का श्रद्धान करता है, जो आदर के साथ जीव-अजीव आदि नौ प्रकार के पदार्थों को श्रुतज्ञान से और नयों से अच्छी तरह जानता है, वह शुद्ध सम्यग्दृष्टि है।
जो तच्चमणेयंतं णियमा सद्दहदि सत्तअंगेहिं। लोयाण पण्हवसदो ववहारपवत्तणढें-च।। 10।। जो आयरेण मण्णदि जीवाजीवादि णव-विहं अत्थं । सुदणाणेण णएहि य सो सद्दिटठी हवे सुद्धो।। 11 ।।
श्री अमृतचन्द्रसूरि ने कहा है कि - जीव-अजीव आदि सात तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप का विपरीत अभिनिवेश से रहित सदा ही श्रद्धान करना चाहिए; क्योंकि वह आत्मा का स्वरूप है।
जीवाजीदीनां तत्त्वार्थानां सदैव कर्त्तव्यम् । श्रद्वानं विपरीताभिनिवेश विविक्तमात्मरूपं तत् ।। 22।।