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भगवान महावीर के सिद्धान्तों का समीक्षात्मक अध्ययन
311 परमात्म-बुद्धि वाला जीव सर्व प्रकार के अन्तरंग और बाह्य शुद्धि को प्राप्त कर अर्थात् द्रव्यकर्म (ज्ञानावरणादि) भावकर्म (राग-द्वेषादि) और नोकर्म (शरीरादि) से रहित होकर मुक्ति प्राप्त करता है। इस प्रकार भगवान के अल्पवचनों से ही गौतम शीघ्र सम्यग्ज्ञान को प्राप्त कर सन्मार्ग को प्राप्त हुआ। सम्यग्चारित्र
सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की साधना के बाद सम्यग्चारित्र की आराधना मोक्षमार्ग को प्राप्त करने के लिए अनिवार्य है। वास्तव में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र- ये तीनों मिलकर मोक्षमार्ग हैं, पृथक्-पृथक् नहीं। आचार्य समन्तभद्र ने लिखा है कि मोह-तिमिर के नष्ट होने पर सम्यग्दर्शन के लाभ से जिसे सम्यग्ज्ञान प्राप्त हो गया है, ऐसा साधु (सम्यग्दृष्टि) राग-द्वेष की निवृत्ति के लिए चारित्र को धारण करता है। राग-द्वेष की निवृत्ति से हिंसादि की निवृत्ति हो जाती है।
मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः। रागद्वेषनिवृत्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः।।
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-रत्न.श्रा.श्लो. 47 | रागद्वेषनिवृत्ते-हिंसादिनिवर्तना कृता भवति।
-रत्न.श्रा.श्लो. 48 । दार्शनिक दृष्टि से सम्यग्दर्शन मोहनीय कर्म की दर्शन-मोहनीय प्रकृति के दूर होने पर होता है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद चारित्र-मोहनीय की निवृत्ति के लिए प्रयत्न किया जाता है। राग-द्वेष की निवृत्ति से हिंसा आदि की निवृत्ति स्वतः हो जाती है। हिंसा, अनृत, चोरी, मैथुन और परिग्रह को पाप की प्रणालिका (नाली) समझना चाहिए। इनसे विरत होना चारित्र है।
हिंसानृतचौर्येभ्यो मैथुनसेवा-परिग्रहाभ्यां च। पापप्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम्।।
-रत्न.श्रा.श्लो.491