Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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भगवान महावीर के सिद्धान्तों का समीक्षात्मक अध्ययन निःसंगतां वात इवाभ्युपेयात् स्त्रियास्तु वार्तापि सदैव हेया। शरीरमात्मीयमवैति भारमन्यत्किमन्गी कुरूतादुदारः ।। 29 ।।
-वीरो.सर्ग.18। ___ साधु मोहरहित होकर अपने मद-मत्सर आदि भावों पर विजय पाना चाहता है, अतः उसे अपने मन की संकल्प-विकल्प, वचन की संभाषण और काय की गमनादि रूप सभी प्रकार की क्रियाओं का विनिग्रह करना चाहिए। वह ऐसे निर्जन्तु और एकान्त स्थान पर मल-मूत्रादि का उत्सर्ग करे, जहाँ किसी भी जीव को किसी भी प्रकार की आपत्ति न हो। वह संयतात्मा साधु भूमि पर या जहाँ कहीं भी बैठे, उस स्थान को और अपने देह को पिच्छिका से भली-भाँति संशोधन और परिमार्जन करके ही बैठे और सावधानी पूर्वक ही किसी वस्तु को उठाये या रखे। साधु वायु के समान सदा निःसंग (अपरिग्रही) होकर विचरे। स्त्रियों को तो स्वप्न में भी याद न करे। जो उदार साधु अपने शरीर को भी भारभूत मानता है, वह दूसरी वस्तु को क्यों अंगीकार करेगा ? गुरू भक्ति
___ साध के लिए परोपकार ही धन है। वे बिना स्वार्थ भावना के जगत् के हितैषी होते हैं। राजा और रंक को हमेशा एक-सा समझते हैं। राज-प्रासाद और गरीब की झोपड़ी, स्वर्णमन्दिर और श्मशान उनके लिए एक-जैसे हैं। न वे किसी से राग रखते हैं, न किसी से द्वेष । ऐसे साध, सैकड़ों प्रयत्नों से अवश्य रक्षणीय हैं। यथा परोपकारैकधना हि सन्तः स्वार्थ विना ये हि हितैषिणस्ते। सम्राट-दरिद्रेषु समाः त्रिकालं कथं न रक्ष्या बहुभिः प्रयत्नैः।।
-भा.विवेक.श्लो. 244 | गुरू के समागम से तामसिक वृत्तियाँ और कलुषित भावनायें नष्टप्रायः हो जाती हैं। साधु के दिव्य-दर्शन और उपदेश से संसार प्रेमपूर्वक रहता है। सच्चे साधु दुनियाँ की महान विभूति हैं। उनके दर्शन मात्र से ही प्राणी का कल्याण होता है।