Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala

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Page 328
________________ 299 भगवान महावीर के सिद्धान्तों का समीक्षात्मक अध्ययन वीरोदय में आप्त और आगम - प्रस्तुत महाकाव्य में आप्त के स्वरूप का चित्रण इस प्रकार है भविष्य में होने वाले, वर्तमान में विद्यमान और भूतकाल में उत्पन्न हो चुके ऐसे त्रैकालिक पदार्थों की परम्परा को जानना निरावरण ज्ञान का माहात्म्य है। ज्ञान का आवरण दूर हो जाने से सार्वकालिक वस्तुओं को जानने वाले पवित्र ज्ञान को सर्वज्ञ भगवान् धारण करते हैं। अतः वे सर्वज्ञाता आप्त होते हैं। उन आप्त को आगम द्वारा ही जाना जा सकता है। यदि वेद में सर्ववेत्ता होने का उल्लेख पाया जाता है, तो फिर कौन सुचेता पुरूष उस सर्वज्ञ का निषेध करेगा ? यदि यह कहा जाय कि श्रुति (वेद-वाक्य) से ही वह सर्वज्ञ हो सकता है अन्यथा नहीं, तो यह तभी सम्भव है, जब कि मनुष्य में सर्वज्ञ होने की शक्ति विद्यमान हो। जिस प्रकार मणि के भीतर चमक होने पर ही वह शाण से प्रकट होती है। क्या साधारण पाषाण में वह चमक शाण से प्रकट हो सकती है ? नहीं। जब मनुष्य में सर्वज्ञ बनने की शक्ति है, तभी वह श्रुति के निमित्त से प्रकट हो सकती है। तीर्थकरों के मुख से निकली हुई वाणी जो पूर्वापर दोष से रहित हो और शुद्ध हो उसे 'आगम' कहते हैं। आगम को ही 'तत्त्वार्थ' कहा जाता हैं। तस्य मुहग्गदवयणं पुव्वावरदोसविरहियं सुद्धं । आगमिदि परिकहियं तेण दु कहिया हवंति तच्चत्था।। जो आप्त के द्वारा कहा गया हो, वादी-प्रतिवादी के द्वारा अखण्डित हो, प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अविरूद्ध हो, वस्तु-स्वरूप का प्रतिपादक हो, वही “सत्यार्थ शास्त्र" हैं। आप्तोपज्ञमनुल्लङ्घ्यमदृष्टेष्टविरोधकम् । तत्त्वोपदेशकृतसार्व शास्त्रं कापथघट्टनम् ।। -रत्न.श्रा.श्लोक 9। जिसमें वीतरागी सर्वज्ञ के द्वारा प्रतिपादित भेद रत्नत्रय का स्वरूप

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