Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala

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Page 324
________________ भगवान महावीर के सिद्धान्तों का समीक्षात्मक अध्ययन 295 परिच्छेद - 2 देव, शास्त्र, गुरू की भक्ति संसार में अनेक प्रकार के आराध्य देवों, परस्पर विरूद्ध कथन करने वाले शास्त्रों तथा विविध रूपधारी गुरूओं की अनेक परम्पराओं को देखकर मानवमात्र के मन में स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि इनमें सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरू कौन हैं ? जिनसे स्वयं का एवं संसार के प्राणियों का कल्याण हो सकता है। जैनागम में सच्चे देव, शास्त्र और गुरू के स्वरूप का निरूपण इस प्रकार है देव का स्वरूप आचार्य समन्तभद्र ने कहा है कि देव को निश्चयतः दोषरहित, सर्वज्ञ और आगमेशी होना चाहिए, अन्यथा वह आप्त नहीं हो सकता। देव के इस स्वरूप में उन्होंने आप्त को समस्त कर्ममल से रहित, सर्वज्ञ और हितोपदेशी कहा है। वे कहते हैं कि आप्तपुरूष वही हो सकता है, जिसमें क्षुत्, पिपासा, जरा, आतंक, जन्म, मृत्यु, भय, असंयम राग-द्वेष तथा मोह नहीं होते। ऐसा आप्त ही परमेष्ठी, परंज्योति, विराग, विमल, कृती, सर्वज्ञ, अनादि मध्यान्त, सार्व-सर्वहितंकर तथा शास्ता कहा जाता है। ऐसा शास्ता ही अनात्मार्थी राग के बिना जीवों के लिए कल्याण का उपदेश ठीक वैसे ही देता है, जैसे शिल्पी के कर-स्पर्श से बजता हुआ मुरज वाद्य किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं करता। आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना। भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत्।। 5।। क्षुत्पिपासा - जरातंक-जन्मान्तकभयस्मयाः । __न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते।। 6 ।।

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