Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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वीरोदय महाकाव्य का सांस्कृतिक एवं सामाजिक विवेचन
259 इससे सिद्ध होता है कि वहां के बाजार, बहूमूल्य पदार्थों से भरे रहते थे तथा वहाँ लोगों के मन में किसी भी प्रकार की बेईमानी/छल नहीं था। क्रेता व विक्रेता के मध्य विश्वास की एक मजबूत कड़ी थी। आचार्यश्री ने एक स्थान पर तुला शब्द का भी प्रयोग किया है। इससे पता चलता है कि वस्तुएँ तौल कर दी जाती थीं, किन्तु उनके साधन बांट का पता नहीं चलता। 2. मार्ग
राज्यान्तर्गत विभिन्न नगरों व ग्रामों में गमन हेतु मार्गों की व्यवस्था भी थी, उन के दोनों ओर छायादार व फलदार वृक्षों की कतारें थीं जो ग्रीष्मकाल में सुखद छाया के साथ-साथ क्षुधा की बाधा भी दूर करते थे। स्थान-स्थान पर प्याऊ बनाई गई थी, जो पथिकों की प्यास बुझाती थीं। मार्ग के दोनों ओर धान्यादि से भरे हरे-भरे खेत दृष्टिगोचर होते थे। कहीं-कहीं वापिकाएँ भी थीं, जो न केवल खेतों की सिंचाई के काम आती थी, अपितु यात्रियों के स्नानादि के लिए भी उपयोगी थीं। सांस्कृतिक व्यवस्था
महाकवि आचार्य ज्ञानसागर की प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रति गहन आस्था है। वे वेद-वेदांगों की शिक्षा पर विश्वास करते हैं। परन्तु उन्होंने कर्मकाण्ड में की जाने वाली हिंसा की कठोर निन्दा की है और 'अजैर्यष्टव्यम्' का अहिंसापरक अर्थ समझााने का उन्होंने प्रयास किया है। उनकी दृष्टि में इस वेद-वाक्य का अर्थ है – “न उगने योग्य पुरानी धान्य से यज्ञ करना चाहिये।"
कवि का पुर्नजन्म एवं कर्मफल में सुदृढ़ विश्वास है। उनके अनुसार अपने इस जन्म में जो जैसा करता है, दूसरे जन्म में उसको उसी के अनुसार फल भोगने पड़ते हैं। धनकीर्ति ने पूर्वजन्म में एक मछली को जीवन दान दिया था। अतः वर्तमान जन्म में वह बार-बार मृत्यु के मुख से बचता रहा। श्रीभूति पुरोहित ने वैश्यपुत्र का धन हड़पने का प्रयत्न - किया। इसलिए वह बार-बार कुयोनियों में जन्म ले-लेकर भटकता रहा।