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वीरोदय महाकाव्य का सांस्कृतिक एवं सामाजिक विवेचन
277 वे भ. महावीर उग्रतपश्चरण द्वारा क्षपक-श्रेणी माडकर आठवें गुणस्थान में प्रथक्त्व-वितर्क शुक्लध्यान को प्राप्त कर घातिया कर्मों की सर्व प्रकृतियों का क्षय करके, अघ से परे होते हुए अन्तरंग बहिरंग लक्ष्मी की सौभाग्य परम्परा को धारण कर शोभित हुए। शिक्षा व शिक्षण पद्धति
भारत की प्राचीन शिक्षा-पद्धति का उद्देश्य था (1) चरित्र का संगठन (2) व्यक्तित्व का निर्माण (3) प्राचीन संस्कृति की रक्षा (4) सामाजिक और धार्मिक कर्तव्यों के सम्पादनार्थ उदीयमान पीढ़ी का प्रशिक्षण ।12 शिक्षा
जैनसूत्रों में तीन प्रकार के आचार्यों का उल्लेख है – कलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य। कलाचार्य और शिल्पाचार्य के सम्बन्ध में कहा है कि उनका उपलेपन और समर्दन करना चाहिए। उन्हें पुष्प समर्पित करने चाहिए तथा स्नान के पश्चात् उन्हें वस्त्राभूषण से मंडित करना चाहिए और भोजन आदि कराके जीवन-भर के लिए प्रीति-दान देना चाहिए तथा पुत्र-पौत्र चलने वाली आजीविका का प्रबन्ध करना चाहिए।
धर्माचार्य को देखकर उनका सम्मान करना चाहिये। यदि वे किसी दुर्भिक्ष वाले प्रदेश में रहते हों तो उन्हें सुभिक्ष देश में ले जाकर रखना चाहिए। कांतार में से उनका उद्धार करना चाहिए तथा दीर्घकालीन रोग से उन्हें मुक्त करने की चेष्टा करनी चाहिए। इसके साथ ही अ यापकों में भी शिक्षा देने की पूर्ण योग्यता होनी चाहिए। जो प्रश्न विद्यार्थियों द्वारा पूँछे जायें उनका बड़प्पन प्रदर्शित किये बिना ही उचित उत्तर देना चाहिए। गुरू शिष्य सम्बन्ध -
शिक्षा व शिक्षण-पद्धति का विवेचन करते हुए कहा गया है कि अध्यापक और विद्यार्थियों के सम्बन्ध प्रेमपूर्ण होते थे। विद्यार्थी गुरूओं व. प्रति अत्यन्त श्रद्धा और सम्मान का भाव रखते थे। अच्छा शिष्य गुरू जी के पढ़ाये विषय को ध्यानपूर्वक सुनता है, प्रश्न पूछता है, प्रश्नोत्तर सुनता