Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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280 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन होते थे। समृद्ध राज्यों की राजधानियों में दूर-दूर से विद्वान लोग आकर बसते थे और ये राजधानियाँ विद्या-केन्द्र बन जाती थीं। साधु और साहि वयों के उपाश्रय और वसतिस्थानों में भी उपाध्यायों के द्वारा परम्परागत शास्त्रों की शिक्षा देने के साथ-साथ शब्द- शास्त्र, हेतुशास्त्र, छंदसूत्र, दर्शन, श्रृंगार-काव्य और निमित्त-विद्या आदि सिखाये जाते थे। श्रमण संघ तो चलती फिरती पाठशालायें ही थीं। विद्या के विभिन्न क्षेत्रों में शास्त्रार्थ और वाद-विवादों द्वारा सत्य और सम्यग्ज्ञान को आगे बढ़ाना श्रमणों की शैक्षणिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियों की आश्चर्यजनक विशेषता थी। जीवमात्र पर दया
महात्मा बुद्ध तो दया, करूणा की साक्षात् प्रतिमूर्ति थे। बाल्यावस्था में घायल हंस के लिये राज्य को त्याग देना भी स्वीकारा था, परन्तु घायल हंस को चचेरे भाई देवदत्त को देना स्वीकार नहीं किया था। वे दुःखी प्राणियों के दुःख को दरू करने के लिये समस्त राज्य, वैभव, अत्यन्त सुन्दरी नव विवाहिता स्त्री तथा पुत्र राहुल को भी त्यागकर सत्य की खोज में निकल पड़े थे। क्रूर अशोक भी उनकी करूणा से प्रभावित होकर अहिंसक परोपकारी सम्राट बन गया था।
वैष्णवधर्म के अनुसार भी अवतारी पुरूष, महापुरूष, ऋषि, मुनि आदि ने सेवाधर्म को स्वयं अपनाया और उसका प्रचार-प्रसार भी किया। जीवों की रक्षा के लिए अवतारी पुरूषों का धरती पर अवतरण होता है। महात्मा गांधी के प्रिय भजन की पंक्ति 'वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाणे रे।' है।
तुलसीदास ने दयाधर्म को अत्यन्त गहन कहा है। वृक्ष, नदी, पर्वत आदि की पूजा में उनकी सुरक्षा की ही मूलभावना निहित है। वेदों में "मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव" इन्हें ईश्वर की प्रतिमूर्ति समझकर श्रद्धा-भक्ति से इनकी आज्ञापालन, नमस्कार, सेवा-शुश्रूषा और विनयपूर्ण व्यवहार से सदा प्रसन्न रखने का निर्देश है। यही भारतीय परम्परा है। आचार्य सोमदेवसूरि ने उपाकाध्ययन में जीवदया का बड़ा