Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala

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Page 307
________________ 278 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन है, उसका अर्थ ग्रहण करता है, उस पर चिन्तन करता है, उसकी प्रामाणिकता का निश्चय करता है, उसके अर्थ को याद रखता है और तदनुसार आचरण करता है।15 सुयोग्य शिष्य अध्यापक के प्रति कभी अशिष्टता नहीं करता। कभी मिथ्या भाषण नहीं करता। यदि उसे लगे कि उसका आचार्य कुपित हो गया है तो प्रिय वचनों से उसे प्रसन्न करता है और अपने प्रमाद-पूर्ण आचरण की क्षमा माँगता हुआ भविष्य में वैसा न करने का वचन देता है। वह कभी भी आचार्य के बराबर में, उसके सामने और उसके पीछे नहीं बैठता। कभी आसन या शैय्या पर बैठकर प्रश्न नहीं पूँछता, बल्कि आसन से उठकर पास में आकर, हाथ जोड़कर प्रश्न पूँछता है। आचार्य के कठोर वचनों को सुनकर क्रोध न करके शान्ति पूर्वक व्यवहार करता है। जैसे अविनीत घोड़े को चलाने के लिए कोड़ा मारने की आवश्यकता होती है, वैसे ही विद्यार्थी को अपने गुरू से बार-बार कर्कश वचन सुनने की आवश्यकता नहीं होती, बल्कि जैसे विनीत घोड़ा कोड़ा देखते ही दौड़ने लगता है, वैसे ही आचार्य का इशारा पाकर सुयोग्य विद्यार्थी सत्कार्य में प्रवृत्त हो जाता है। वास्तव में विनीत वही है, जो अपने गुरु की आज्ञा का पालन करता है, उसके समीप रहता है और उसका इशारा पाते ही काम में लग जाता है, लेकिन अविनीत विद्यार्थियों को अनुशासन में लाने के लिए अध्यापक उन्हें ठोकर और चपत मारकर दण्ड देकर आक्रोश-पूर्ण वचन भी कहते थे। " अविनीत शिष्यों की तुलना गलिया बैलों से की गयी है, जो आगे बढ़ने से जवाब दे देते हैं। ऐसे शिष्यों को यदि किसी कार्य के लिए भेजा जाये तो वे इच्छानुसार, पंख निकले हंस-शावकों की भाँति, इधर-उधर घूमते रहते हैं। उन्हें अत्यन्त कुत्सित गर्दभ की उपमा दी गयी है। आचार्य ऐसे शिष्यों से तंग आकर, उन्हें उनके भाग्य पर छोड़कर वन में तप करने चले जाते थे।" वीरोदय में गुरू-शिष्य सम्बन्ध गुरू-शिष्य के मधुर सम्बन्धों का वर्णन करते हुए काव्यकार ने

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