Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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वीरोदय महाकाव्य का सांस्कृतिक एवं सामाजिक विवेचन हैं, निष्कपटजनों के शत्रु हैं और लोगों के छिद्रों अर्थात् दोषों को देखकर अपनी स्थिति को दृढ़ बनाते हैं। 3. हृषीकाणि समस्तानि माद्यन्ति प्रमदाऽऽश्रयात् । ___ नो चेत्पुनरसन्तीव सन्ति यानि तु देहिनः ।। 8/31|| - प्रमदा अर्थात् स्त्री के आश्रय से ये समस्त इन्द्रियाँ मद को प्राप्त होती हैं। यदि स्त्री का संपर्क न हो तो फिर ये देहधारी के होते हुये भी नहीं होती हुई सी रहती हैं। सन्दर्भ - 1. सागारधर्मामृत 2/801 2. हिसानृतस्तेयाब्रह्म-परिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्:-तत्त्वार्थसूत्र 7/1। 3. देशसर्वतोऽणुमहती, वही 7/21 4. व्रतममिसंधिवृतो नियमः, इदं कर्त्तव्यमिंद न कर्त्तव्यमिति वा 7/1/342/61 5. व्रतं कोऽर्थः । सर्वनिवृत्ति-परिणामः । प. प्र./टी./2/52/173/51 6. सागारधर्मामृत 2/801 7. निःशल्योव्रती-वही 7/18। 8. अगार्यनगारश्च-वही 7/19। 9. अणुव्रतोऽगारी, वही. 7/201 10. तत्त्वार्थसूत्र 7/21। 11. वही 7/221 12. अल्तेकर, एजूकेशन एन ऐंशिएण्ट इण्डिया पृ. 326 | 13. राजप्रश्नीय सूत्र 190, पृ. 328 | 14. स्थानांग 3-135 तथा मनुस्मृति 2-225 आदि। 15. आवश्यकनियुक्त 22। 16. उत्तराध्ययन सूत्र 1, 2, 9, 12, 13, 18, 22, 27, 41 | 17. व्याख्याप्रज्ञप्ति 2, 1 औपपातिक 38, पृ. 172 |