Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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वीरोदय महाकाव्य का सांस्कृतिक एवं सामाजिक विवेचन
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परिच्छेद - 2 धार्मिक अनुष्ठान एवं शिक्षा
व्रत
जो मर्यादायें सार्वभौम हैं, जीवन को सुन्दर बनाने वाली और आलोक की ओर ले जाने वाली हैं, वे मर्यादायें नियम या व्रत कहलाती हैं। सेवनीय विषयों का संकल्पपूर्वक यम या नियम रूप से त्याग करना, हिंसा आदि निन्द्य कार्यों का छोड़ना अथवा पात्रदान आदि प्रशस्त कार्यों में प्रवृत्त होना व्रत है।'
जैसे सतत प्रवाहित सरिता के प्रवाह के नियंत्रण के लिये दो तटों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार जीवन को नियंत्रित/मर्यादित बनाये रखने के लिये व्रतों की आवश्यकता है। जैसे तटों के अभाव में नदी-प्रवाह छिन्न-भिन्न हो जाता है, उसी प्रकार व्रत-विहीन मनुष्यों की जीवन-शक्ति भी छिन्न-भिन्न हो जाती है। अतएव जीवन-शक्ति को केन्द्रित और योग्य दिशा में ही उपयोग करने के लिए व्रतों की आवश्यकता है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने लिखा है कि हिंसा, अनृत, अस्तेय, अब्रह्म तथा परिग्रह से विरति व्रत है। देशव्रत और सर्वव्रत की दृष्टि से व्रत के अणुव्रत और महाव्रत ये दो भेद
पूज्यपाद देवनन्दी ने लिखा है कि प्रतिज्ञा करते समय जो नियम लिया जाता है, वह व्रत है। अथवा "यह करने योग्य है, यह करने योग्य नहीं है"- ऐसा नियम करना व्रत है। व्रत की यह परिभाषा सूत्रकार को पूर्व परम्परा से प्राप्त थी और सूत्रकार के बाद भी यह चलती रही। परमात्मप्रकाशकार सर्व-निवृत्ति के परिणाम को व्रत कहते हैं। सोमदेव ने सेवनीय वस्तु को इरादापूर्वक त्याग करने को व्रत कहा है। अथवा अच्छे कार्यों में प्रवृत्ति और बुरे कार्यों से निवृत्ति को व्रत कहते हैं।