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वीरोदय महाकाव्य का सांस्कृतिक एवं सामाजिक विवेचन
आचार्यश्री ने इस महाकाव्य में वर्धमान के जन्म से पूर्व समाज के रहन-सहन का चित्रण किया है। उस समय की सामाजिक स्थिति अत्यन्त दयनीय थी। सारे समाज में ब्राह्मण को श्रेष्ठ समझा जाता था। शूद्र की स्थिति बुरी थी। उच्च व निम्न का भेद-भाव सब ओर व्याप्त था। वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर न होकर जन्म पर आधारित थी।
भगवान महावीर ने समाज को सुव्यव्यवस्था हेतु गृहस्थों तथा ब्राह्मणों के लिए कुछ नियम/लक्षण निर्धारित किये। जैसे- ब्राह्मण को सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह का पालन करना चाहिए। तपश्चरण इन्द्रिय-संयम आदि में उनकी प्रवृत्ति हो। छल-प्रपंच से सदा दूर रहें, शान्ति, संयम, शुद्धता की अधिकता हो, प्राणी-मात्र के लिए मन में दया हो। आत्मचिन्तन में लगे रहकर परनिन्दा से दूर रहें। निष्पृही, मन, वचन, काय से शुद्ध अद्वैत-भाव को प्राप्त, रात्रिभोजन का त्यागी, एक समय का भोजी, निर्जन्तुक जल को पीने वाला पुरूष ही ब्राह्मण हैं।20 वीरोदय में ब्राह्मण
आचार्यश्री ने लिखा है कि जो आत्मा का चिन्तन करे, असत्यसंभाषण न करे, पर-निन्दा में मौन रहे, त्रियोग से जिसने आत्मशुद्धि पा ली हो, जो अद्वैतभाव को प्राप्त हो गया हो अन्तरंग में प्रभु भक्ति रखता हो, वही सच्चा ब्राह्मण है। वे कुमारकाल में गुरू के समीप विद्यार्जन कर युवावस्था में विवाह कर सुखपूर्वक जीवन बितायें। सभी के साथ स्नेहमय व्यवहार करें। पर स्त्री को माता, बहिन, पुत्री समझें । पराये धन से दूर रहें, अभक्ष्य पदार्थों का सेवन न करें। दूसरों के दोषों पर ध्यान नहीं देवें। सदाऽऽत्मनश्चिन्तनमेव वस्तु न जात्वसत्यस्मरणं समस्तु। परापवादादिषु कभावः स्याद् ब्राह्मणस्यैष किल स्वभावः ।। 38।। मनोवचोंऽगैः प्रकृतात्मशुद्धिः परत्र कुत्राभिरूचेर्न बुद्धिः । इत्थं किलामैथुनतामुपेतः स ब्राह्मणो ब्रह्मविदाश्रमेऽतः ।। 41 ।।
-वीरो.सर्ग.14।