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वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
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"संकल्पपूर्वकः सेव्ये नियमो व्रतमुच्यते । प्रवृत्ति विनिवृत्ती वा सदसत्कर्म संभते ।।”
- उपा. श्लो. 3161
पं. आशाधर ने इस परिभाषा को और अधिक विस्तार देते हुए लिखा है कि किन्हीं पदार्थों के सेवन का अथवा हिंसादि अशुभ कर्मों का नियत या अनियत काल के लिए संकल्पपूर्वक त्याग करना व्रत है । अथवा पात्रदान आदि शुभ कर्मों में संकल्पपूर्वक प्रवृत्ति करना व्रत है। वीरोदय में व्रत का वर्णन - निम्न उदाहरण द्वारा प्रस्तुत किया गया है
क्षुल्लिकात्वमगाद्यत्र देवकी धीवरीचरे ।
पामरो मुनितां जन्मन्यौदार्य वीक्ष्यतां च रे ।। 36 ।। –वीरो. सर्ग. 17।
श्रीकृष्ण की माता देवकी ने अपने पूर्व जन्म में धीवरी के भव में क्षुल्लिका के व्रत धारण किये और पद्मपुराण में वर्णित अग्निभूति, वायुभूमि की पूर्वभव की कथा में एक दीन पामर किसान ने भी मुनिदीक्षा ग्रहण कर व्रत धारण किये थें। तत्त्वार्थसूत्रकार ने पाँच अणुव्रतों के विवेचन के बाद लिखा है कि जो शल्यरहित होता है, वह व्रती है । उस व्रती के दो भेद हैं। 1. अगारी, 2. अनगारः । अणुव्रतों को पालन करने वाला अगारी कहलाता है' । सूत्रकार ने अगारी को दिग्देशादि सात शीलव्रतों से भी सम्पन्न बताया है" और मारणान्तिक सल्लेखना का विधान किया है । " 'दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिक- प्रोषोपवासोपभोग - परिभोगपरिमाणातिथिसंविभाग - व्रत - सम्पन्नश्च' | " मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोषिता”
सोमदेव ने बारह व्रतों को श्रावक के उत्तरगुण कहा है अणुव्रतानि पंचानि त्रिप्रकारं गुणव्रतम् । शिक्षाव्रतानि चत्वारि गुणाः स्युर्द्वादशोत्तरे ।।