Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
View full book text
________________
265
वीरोदय महाकाव्य का सांस्कृतिक एवं सामाजिक विवेचन सामाजिक रीति-रिवाज
समाज के विभिन्न आदर्श और नियन्त्रण जनरीतियों, प्रथाओं और रूढ़ियों के रूप में पाये जाते हैं। अतः नियन्त्रण में व्यवस्था स्थापित करने एवं पारस्परिक निर्भयता बनाये रखने हेतु यह आवश्यक है कि उनको एक विशेष कार्य के आधार पर संगठित किया जाये। सामाजिक विरासत में स्थापित सामूहिक व्यवहारों का एक जटिल तथा घनिष्ठ संघठन है। सामूहिक हितों की रक्षार्थ एवं आदर्शों के पालनार्थ मनुष्य सामाजिक संस्थाओं को जन्म देता है। इनका मूल आधार निश्चित आचार, व्यवहार
और समान हित-सम्पादन है। मनुष्य की सामाजिक क्रियाओं, सामूहिद, हितों, आदर्शों एवं एक ही प्रकार के रीति-रिवाजों पर अवलम्बित समाज मनुष्यों को सामूहिक रूप से अपनी संस्कृति के अनुरूप व्यवहार करने के लिए बाध्य कर देता है।
___नर-नारी, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी मनुष्य हैं और सबकी अपनी-अपनी उपयोगिता है। जो इनमें भेद-भाव उत्पन्न करते हैं, वे सामाजिक सिद्धान्तों के प्रतिरोधी हैं। अतः समाज में शान्ति सुव्यवस्था तथा सामाजिक रीति-रिवाजों को स्थापित करने के लिए मानवमात्र को समानता का अधिकार प्राप्त होना चाहिए। वीरोदय में समानता व समता का महत्त्व
समानता व समता के विषय में वीरोदय में कहा है कि इस भूतल पर जन्म लेने वाला प्राणी चाहे मूर्ख हो या विद्वान, राजा हो या दास, गज हो या अज, (बकरा) सभी का इस पृथ्वी पर उतना ही अधिकार है, जितना आपका। मनुष्य को चाहिए कि वह विपत्ति के आने पर हाय-हाय न करे, न्यायोचित मार्ग से कभी च्युत न होवे और सदा प्रसन्न रहकर अपना कर्तव्य पालन करे। अज्ञोऽपि विज्ञो नृपतिश्च दूतः गजोऽप्यजो वा जगति प्रसूतः । अस्यां धरायां भवतोऽधिकारस्तावान् परस्यापि भवेन्नृसार।। 1।।