Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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वीरोदय का काव्यात्मक मूल्यांकन तजोसस्तद्यशसः स्थिताविभौ, वृथेति चित्ते कुरूते यदा तदा। तनोति मानो परिवेषकैतवात् तदाविधिःकुण्डलानां विधोरपि।। 1-14।।
- नैषधीय चरित 1-14 | पूर्व विनिर्माय विधुं विशेष-यत्नाद्विधिस्तन्मुखमेवमेषः। कुर्वस्तदुल्लेखकरी चकार स तत्र लेखामिति तामुदारः ।। 29 ।।
-वीरो.सर्ग.3। इस प्रकार संवादों की विशिष्टिता तथा अन्य काव्यों से तुलना करने पर वर्धमान की ब्रह्मचर्य व्रत के प्रति दृढ़ निष्ठा तथा राजा सिद्धार्थ व त्रिशला द्वारा स्वीकृति प्रदान करना आदि चित्रण में कवि ने अपनी काव्य कुशलता को उकेरा है। सूक्तियाँ - 1. स्वरोटिकां हि मोटयितुं शिक्षते जनोऽखिलः सम्वलयेऽधुना क्षितेः ।
न कश्चनाप्यन्यविचारतन्मना नृलोकमेषा ग्रसते हि पूतना।। 9/9 - आज इस भूतल पर सभी जन अपनी अपनी रोटी को मोटी बनाने में लगे हैं। कोई भी किसी अन्य की भलाई का विचार नहीं कर रहा है। अहो! आज तो यह स्वार्थपरायणता रूपी राक्षसी सारे मनुष्य लोक को ही ग्रस रही है।। 9।। 2. पीड़ा ममान्यस्य तथेति जन्तु-मात्रस्य रक्षाकरणैकतन्तु। ___ कृपान्वितं मानसमत्र यस्य स ब्राम्हणः सम्भवतान्नृशस्य ।। 14/37 -- जैसी पीड़ा मुझे होती है वैसे ही अन्य को भी होती होगीऐसा विचारकर जो प्राणीमात्र की रक्षा करने में सदा सावधान रहता है, जिसका हृदय सदा दयायुक्त रहता है वही ब्राह्मण होने के योग्य है। 3. पापं विमुच्चैव भवेत् पुनीतः स्वर्ण च किट्टप्रतिपाति हीतः।। 17/7 – पाप को छोड़कर ही मनुष्य पवित्र कहला सकता है। जैसे कीट कालिमा विमुक्त होने पर ही स्वर्ण सम्माननीय होता है।