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242 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन 4. नैषधीयचरित और वीरोदय महाकाव्य
नैषधीय चरितम् में कहा गया है - अधीति-बोधाचरण-प्रचारणै-र्दशाश्चतस्रः प्रणयन्नुपाधिभिः चतुदर्शत्वं कृतवान् कुतः स्वयं, न वेदिन विद्यासु चतुर्दशस्वयम् ।। 1-4।।
चौदह विद्याओं में अध्ययन, अर्थज्ञान, आचरण और अध्यापन (इन चार) प्रकार से चार अवस्थाएँ करते हुए इससे स्वयं चतुर्दशता कैसे कर दी? यह मैं नहीं जानता हूँ। इस पद्य का प्रभाव वीरोदय के निम्नलिखित पद्यों पर दृष्टिगोचर होता है - एकाऽस्य विद्या श्रवसोश्च तत्त्वं सम्प्राप्य लेभेऽथ चतुर्दशत्वम्। शक्तिस्तथा नीतिचतुष्कसारमुपागताऽहो नवतां बभार ।। 14।।
-वीरो.सर्ग.3। राजा सिद्धार्थ की एक विद्या दोनों श्रवणों के तत्त्व को प्राप्त होकर चतुर्दशत्व को प्राप्त हुई तथा एक शक्ति में भी नीतिचतुष्क के सार को प्राप्त होकर नवपने को धारण किया। अधीतिबोधाऽऽचरण प्रचारैश्चतुर्दशत्वं गमिताऽत्युदारैः। विद्या चतुःषष्ठिरतः स्वभावादस्याश्च जाताः सकलाः कला वा9 ।। 30।।
वी.सर्ग.3 रानी की विद्या विशद रूप अधीति (अध्ययन) बोध (ज्ञान) आचरण (तदनुकूल प्रवृत्ति) और प्रचार के द्वारा चतुर्दशत्व को प्राप्त हुई।
नैषधीयचरित (1-14) में बताया हैं कि ब्रम्हा ने नल के तेज और यश के सामने चन्द्र और सूर्य को व्यर्थ समझा और उनकी कुण्डली बना दी। वीरोदय में भी रानी प्रियकारिणी के मुख के सामने चन्द्रमा को व्यर्थ समझ कर विधाता चन्द्रमा पर रेखा खींच देता है जिसे लोग कलंक कहते
हैं।