Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala

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Page 283
________________ 254 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन अनुसार अपनी प्रवृत्ति करने लगते हैं, तो विभिन्न प्रकार के सामाजिक संगठन जन्म ले लेते हैं, जिसमें कर्त्तव्याकर्त्तव्यों, उत्सवों, संस्कारों एवं सामाजिक सम्बन्धों का समावेश रहता है। कतिपय मनुष्यों के व्यवहार और विश्वासों का एक ही रूप में अधिक समय तक प्रचलन सामाजिक संस्थाओं को उत्पन्न करता है। सामाजिक संगठन समाज की उत्पत्ति व्यक्ति की सुख-सुविधाओं हेतु होती है। जब व्यक्ति के जीवन में अशान्ति का भीषण ताण्डव बढ़ जाता है, भोजन, वस्त्र और आवास की समस्यायें विकट हो जाती हैं, जिनकी पूर्ति व्यक्ति अकेला नहीं कर सकता, तब वह सामाजिक संगठन प्रारम्भ करता है। भोग और लोभ की कामना विश्व के समस्त पदार्थों को जीवन-यज्ञ के लिए विष बनाती है तथा प्रभुता की पिपासा विवेक को तिलांजलि देकर कामनाओं की वृद्धि करती है। अहं-भावना व्यक्ति में इतनी अधिक है, जिससे वह अन्यों के अधिकारों की पूर्ण अवहेलना करता है। अहंवादी/अहंकारी की दृष्टि अपने अधिकारों एवं दूसरों के कर्तव्यों तक ही सीमित रहती है। फलतः व्यक्ति को अपने अहंकार की तुष्टि के लिए समाज का आश्रय लेना पड़ता ,आचार्यश्री के काव्यों के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि उन्हें ऐसा समाज प्रिय है, जहाँ लोगों में धर्म एवं मानवता के प्रति आस्था हो तथा भारतीय संस्कृति के मूल तत्त्व अधिकाधिक मात्रा में हों। समाज में संगठन हो। मुनियों का कर्तव्य समाज में धर्म के प्रति लोगों में चेतना जागृत करना हो। शासक, प्रजारंजन करते हुए राज्य करें, वणिक-जन अर्थव्यवस्था को संभालें। सेवक तीनों श्रेणियों के लोगों की सेवा करें। अतः स्पष्ट है कि आचार्यश्री भारत में प्रचलित वर्णव्यवस्था को मानते हैं। आचार्यश्री ज्ञानसागर के अनुसार नगरीय समाज की अपेक्षा ग्रामीण समाज में सरलता एवं सौहार्द के दर्शन अधिक होते हैं। जिस अनाथ बालक के विषय में सुनकर सेठ गुणपाल उसे मारने को तत्पर हो जाते हैं उसी बालक को देखकर बस्ती में रहने वाले गोविन्द ग्वाले के मन में दया एवं वात्सल्य का स्रोत उमड़ने लगता है।

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