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वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
का मुख्य लक्ष्य सांस्कृतिक चित्रण नहीं है तथापि उनके काव्यों में उच्चकोटि का सांस्कृतिक चित्रण मिलता है। आचार्यश्री भले ही अपने आचार-विचार में निवृत्तिवादी रहे हों, पर समाज एवं संस्कृति से कट कर वे कभी नहीं चले। वे धर्मोपदेष्टा एवं धर्म-सुधारक थे। उन्होंने समाज को सन्मार्ग पर लाने के लिए साहित्य-सृजन किया। जनसाधारण की सांस्कृतिक परम्पराओं एवं उसके दैनिक व्यवहारों से वे भलीभाँति परिचित थे। जनमानस में आध्यात्मिक एवं धार्मिक चेतना भरने के लिए उन्होंने जिस विशाल साहित्य की रचना की उसमें सांस्कृतिक चेतना के कई स्थल मिलते हैं।
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आचार्यश्री ने वीरोदय महाकाव्य में भी भारतीय संस्कृति के मूल तत्त्वों को पिरोने का प्रयास किया है। इसमें भारतीय संस्कृति की द्योतक जिनेन्द्रदेव के प्रति दृढ़ भक्ति चित्रित है । वीरोदय ग्रन्थ का शुभारम्भ ही श्री जिनेन्द्रदेव की भक्ति से किया है। वे जिन भगवान हम सबके कल्याण के लिए हों, जिनकी चरण- सेवा समस्त श्रोताजनों को और मेरे लिए मेवा तुल्य है, जिनकी सेवा दाख के समान मिष्ट और मृदु है और हृदय को प्रसन्न करने वाली है। ग्रंथारम्भ में श्री जिनेन्द्रदेव की स्तुति तथा अन्य पात्रों द्वारा जिनेन्द्र - पूजन की बातें कवि की जिनेन्द्र भक्ति में आस्था का स्पष्ट संकेत करती हैं तथा भगवान जिनेन्द्र देव की मूर्तियों और जिनालयों का वर्णन भी उनकी जिनेन्द्र - भक्ति का प्रमाण है । '
आचार्यश्री ने गुरू तथा माता - पिता के प्रति भी आदर - भाव प्रकट किया है। माता - पिता का सम्मान करना, विनम्रता धारण करना, भारतीय संस्कृति के विशेष तत्त्व हैं। महाकाव्य नायक वर्धमान ब्रह्मचर्यव्रत लेने की इच्छा से माता - पिता द्वारा प्रस्तुत विवाह के प्रस्ताव को जिस विनम्रता से अस्वीकृत करते हैं, वह विनम्रता प्रत्येक भारतीय पुत्र के लिए अनुकरणीय है। 2
भारतीय संस्कृति की मान्यतानुसार गर्भवती नारी की हर इच्छा को पूर्ण किया जाता है, उसकी भलीभाँति सेवा कर उसे सब