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वीरोदय महाकाव्य का सांस्कृतिक एवं सामाजिक विवेचन
249 नियुक्त किया, वे वैश्य तथा जो शास्त्रों से दूर भागे और हीन काम करने में लगे, वे शूद्र कहलाये। हरिवंश पुराण में जिनसेनसूरि (783 ई.) ने रविषेणाचार्य के कथन को ही दूसरे शब्दों में दोहराया है।'
इस प्रकार कर्मणा वर्ण-व्यवस्था का प्रतिपादन करते रहने के बाद भी उसके साथ चतुर्वर्ण का सम्बन्ध जुड़ गया और उसके प्रतिफल स्वरूप सामाजिक जीवन और श्रौत-स्मार्त मान्यताएँ जैनसमाज और जैनचिन्तकों को प्रभावित करती गयीं। एक शताब्दी बीतते-बीतते यह प्रभाव जैन जनमानस में इस तरह बैठ गया कि नवमी शताब्दी में जिनसेन ने उन सब मन्तव्यों को स्वीकार कर लिया और उन पर जैनधर्म की छाप भी लगा दी। जिनसेन पर श्रौत-स्मार्त प्रभाव की चरम सीमा वहाँ दिखाई देती है, जब वे इस कथन का जैनीकरण करने लगते हैं कि "ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहुओं से क्षत्रिय, ऊरू से वैश्य तथा पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। वे लिखते हैं कि ऋषभदेव ने अपनी भुजाओं में शस्त्र धारण करके क्षत्रिय बनाये, ऊरू द्वारा यात्रा का प्रदर्शन करके वैश्यों की रचना की तथा हीन काम करने वाले शूद्रों को पैरों से बनाया। मुख से शास्त्रों का अध्यापन कराते हुए भरत ब्राह्मणवर्ण की रचना करेगा। एक तो समाज में श्रौत-स्मार्त प्रभाव स्वयं बढ़ता जा रहा था। दूसरे उस पर जैनधर्म की छाप लग जाने से और भी दृढ़ता आ गयी।
आचार्यश्री ने वीरोदय में लिखा है कि काल परिवर्तन के फलस्वरूप इस धरातल पर क्रम से चौदह मनु उत्पन्न हुए, जिन्हें कुलकर कहा जाता है। उन में अन्तिम मनु नाभिराय हुए। इनकी स्त्री मरूदेवी ने एक महान पुत्र को जन्म दिया, जिसे पुराणों ने 'ऋषम' इस नाम से पुकारा। उस समय के लोगों की पारस्परिक कलह पूर्ण दुखित दीन-दशा देखकर महात्मा ऋषभ ने उन्हें क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-तीनों वर्गों में विभक्त कर उनके जीवन निर्वाह की समुचित व्यवस्था की। यथा - वीक्ष्येदृशीमंगभृतामवस्थां तेषां महात्मा कृतवान् व्यवस्थाम् । विभज्य तान् क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र-भेदेन मेधा-सरितां समुद्रः ।। 13 ।।
-वीरो.सर्ग.181