Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
रानी प्रियकारिणी प्राणनाथ के मुख से मंगलमयी मधुर वाणी सुनकर हर्षाश्रुओं को बहाती हुई गोद में आये पुत्र के समान आनन्द से रोमांचित हो गई ।
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यहाँ पर राजा सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणी वात्सल्यरस के आश्रय हैं। उत्पत्स्यमान पुत्र आलम्बन - विभाव है, सोलह स्वप्न उद्दीपन विभाव हैं। रोमांचित होना, आनन्दाश्रु प्रवाहित करना इत्यादि अनुभाव हैं। हर्ष, गर्व, आवेग व्यभिचारी भाव हैं ।
(ख) महावीर की बाल-क्रीड़ाएँ वात्सल्य रस का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करती हैं
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उदाहरण
निशम्य युक्तार्थधुरं पिता गिरं पस्पर्श बालस्य नवालकं शिरः । आनन्दसन्दोहसमुल्लसद्वपुस्तया तदास्येन्दुमदो दृशः पपुः ।। 46 ।। - वीरो.सर्ग. 8 ।
यहाँ महावीर आलम्बन-विभाव, उनकी बाल लीला एवं मधुर-व - वाणी उद्दीपन विभाव है। रोमांचादि सात्विक - अनुभाव तथा पुत्र के शरीर, केश का स्पर्श असात्विक अनुभाव हैं। हर्ष, प्रबोधादि व्यभिचारी भावों के सम्मिश्रण से राजा सिद्धार्थ के हृदय में जन्म-जन्मान्तर से संचित वत्सलता, स्नेह स्थायीभाव के रूप में परिणत होकर आस्वादनोन्मुख होता है । अष्टम अध्याय में भगवान महावीर की बाल - चेष्टाओं से वात्सल्यरस की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है ।
4. वीर रस
प्रस्तुत महाकाव्य में यद्यपि शान्तरस की ही प्रधानता है । इसलिये उसे अंगीरस का स्थान प्राप्त हुआ है, फिर भी आचार्यश्री ने यत्र - यत्र अन्य अंग - रसों का वर्णन अल्परूप में करके महाकाव्यीय लक्षणों का भी पालन किया है। यहाँ वीररस का उदाहरण प्रस्तुत है