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वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन रघुवंश के राजकुमार "प्रजायै गृहमेधिनाम्" सन्तानोत्पत्ति के लिए गृहस्थ-धर्म को स्वीकार करते हैं तो वीरोदय के नायक महावीर प्रजा की सेवा के लिए ब्रह्मचर्य की आराधना करते हैं
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किं राजतुक्तोद्वाहेन प्रजायाः सेवया तु सा ! तदर्थमेवेदं ब्रह्मचर्यमाराधयाम्यहम् || 43 । ।
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- वीरो.सर्ग. 8 ।
कालिदास ने रघुवंश में दिलीप और सुदक्षिणा के मध्य में विद्यमान नन्दिनी की उपमा दिन और रात्रि के मध्य में विद्यमान सन्ध्या से दी है 'तदन्तरे सा विरराजधेनु - र्दिनक्षपामध्यगतेव सन्ध्या' ।। 12-20।।
महाकवि ज्ञानसागर ने सम्पत्ति व विपत्ति के बीच में रूचिकर मनुष्यता की कल्पना रात व दिन के मध्य स्थित सन्ध्या से की है विपन्निशेवाऽनुमिता भुवीतः सम्पत्तिभावो दिनवत्पुनीतः । सन्ध्येव भायाद् रूचिरा नृता तु द्वयोरूपात्तप्रणयप्रमातुः ।। 13 ।। - वीरो.सर्ग.17 ।
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संसार में मनुष्य को सम्पत्ति का प्राप्त होना दिन के समान पुनीत है । इसी प्रकार विपत्ति का आना भी रात्रि के समान अवश्यम्भावी है । इन दोनों के मध्य में मध्यस्थ रूप से उपस्थित स्नेहभाव को प्राप्त होने वाले महानुभाव के मनुष्यता सन्ध्याकाल के समान रूचिकर प्रतीत होना चाहिए ।
गत्वा सद्यः कलभतनुतां शीघ्रसम्पातहेतोः ।
क्रीड़ाशैले प्रथमकथिते रम्यसानौ निषण्णः । ।
2. मेघदूत व वीरोदय महाकाव्य
महाकवि कालिदास ने उत्तरमेघ में मेघ की तुलना हाथी के बच्चे से करते हुए कहा है -