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वीरोदय का काव्यात्मक मूल्यांकन
हे पितोऽयमितोऽस्माकं सुविचारविनिश्चयः। नरजन्म दधानोऽहं न स्यां भीरूवशंगतः।। 42।।
___-वीरो.सर्ग.8। पुत्र की ब्रह्मचर्य-व्रत के प्रति ऐसी निष्ठा देखकर पिता ने हर्षित होकर उनके सिर का स्पर्श करके यथेच्छ जीवन-यापन करने की अनुमति दे दी। वीरोदय महाकाव्य की अन्य काव्यों से तुलना
महाकवि आचार्य ज्ञानसागरकृत वीरोदय महाकाव्य संस्कृत भाषा का एक उच्चकोटि का महाकाव्य है। यह अन्य महाकाव्यों की तुलना में खरा उतरता है। महाकवि कालिदासकृत रघुवंश महाकाव्य, मेघूदत व कुमारसम्मव, श्रीहर्षकृत नैषधीयचरित, महाकवि माघकृत शिशुपाल-वध आदि से संक्षिप्त तुलना निम्न प्रकार है - 1. रघुवंश व वीरोदय महाकाव्य
रघुवंश के द्वितीय सर्ग में राजा दिलीप नन्दिनी का छाया के समान अनुगमन करते हैं। स्थितः स्थितामुच्चलितः प्रयातां निषेदुसीमासनबन्ध धीरः । जलाभिलाषी जलमाददाना छायेव तां भूपतिरन्वगच्छत् ।। 12-6||
वीरोदय में रानी प्रियकारिणी छाया के समान राजा सिद्धार्थ का अनुगमन करती हैं। छायेव सूर्यस्य सदाऽनुगन्त्री बभूव मायवे विधेः सुमन्त्रिन्। नृपस्य नाना प्रियकारिणीति यस्याः पुनीता प्रणयप्रणीतिः।। 15।।
-वीरो.सर्ग.3। हे सुमन्त्रिन्! सिद्धार्थ राजा की प्रियकारिणी नाम की रानी थी, जो सूर्य की छाया के समान एवं विधि की माया के समान पति का सदा अनुगमन करती थी और जिसका प्रणय-प्रणयन (प्रेम-प्रदर्शन) पवित्र था। अतः वह अपने "प्रियकारिणी" नाम को सार्थक करती थी।