________________
230 वीरोदय महाकाव्य और म. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन जाता है। इसमें पाँच–पाँच और छह-छह पदों के समास भी मिलते हैं। साथ-साथ मधुर वर्गों का भी प्रयोग पाया जाता है। यह शैली वैदर्भी व गौड़ी का मिश्रित रूप है। इसमें रचित काव्य को पढ़ने से वर्ण्य-विषय आसानी से समझ में आ जाता है। जैसे - अरविन्दधिया दधद्रविं पुनरैरावण उष्णसच्छविम् । धुतहस्ततयात्तमुत्यजन्ननयद्धास्यमहो सुरव्रजम।। 10 ।। झषकर्कटनक्रनिर्णये वियदब्धावुत तारकाचये। कुवलप्रकरान्वये विधु विबुधाः कौस्तुभमित्थमभ्यधुः।। 11 ।। पुनरेत्य च कुण्डिनं पुराधिपुरं त्रिक्रमणेन ते सुराः। उपतस्थुरमुष्य गोपुराग्रभुवीत्थं जिनभक्तिसत्तुराः ।। 12।।
-वीरो.सर्ग.7| आचार्यश्री ने वीरोदय महाकाव्य में वैदर्भी-शैली का प्रयोग अधिक किया है, क्योंकि वे शब्दाडम्बरों पर ज्यादा विश्वास नहीं करते। यदि कहीं वे दीर्घ समास का प्रयोग करते हैं, तो वे सुगमता से पढ़े जा सकते हैं। अतः इसे गौड़ी-शैली के अन्तर्गत नहीं गिन सकते हैं। संवादों की विशिष्टता
वीरोदय में संवादों की विशिष्टता भी कई स्थानों पर दृष्टव्य है। विशेष रूप से (1) रानी प्रियकारिणी व राजा सिद्धार्थ का संवाद (2) रानी प्रियकारिणी व देवी संवाद (3) राजा सिद्धार्थ व वर्धमान संवाद। इनका वर्णन बड़े ही रोचक ढंग से हुआ है।
एक दिन सुख से सोती हुई प्रियकारिणी रानी ने पिछली रात्रि में सोलह स्वप्नों की सुन्दर परम्परा देखी। जागकर प्रातःकालीन क्रियाओं को करके अर्हन्त जिनेन्द्रों की अष्ट-द्रव्य से पूजा-अर्चना की। तत्पश्चात् उत्तमोत्तम आभूषणों से आभूषित होकर विनय से नम्रीभूत प्रियकारिणी देवी ने सहेलियों के साथ स्वप्नों का फल जानने की इच्छा से राजसभा में अपने प्राणनाथ सिद्धार्थ की ओर प्रस्थान किया।
राजा सिद्धार्थ ने, नेत्रों को आनन्द देने वाली और सूर्य की प्रभा के