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228 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन वीर! त्वमानन्दभुवामवीर: मीरो गुणानां जगताममीरः । एकोऽपि सम्पातितमामनेक-लोकाननेकान्तमतेन नेक ।। 5 ।।
_ --वीरो.सर्ग.1। एवं समुत्थान-निपात पूर्णे धरातलेऽस्मिन् शतरंजतूर्णे। भवेत्कदा कः खलु वाजियोग्यः प्रवक्तुमीशो भवतीति नोऽज्ञः।। 14।।
-वीरो.सर्ग.171 कवि की भाषा सरल और विषय-वर्णन के अनुरूप है। इसमें मधुरता प्रासादिकता अलंकारिता आदि गुण भी हैं। लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग भाषा को प्रभावक बनाने के लिए किया है। समस्त पदों का प्रयोग अत्यल्प है। देश, काल एवं विषयवस्तु के अनुरूप ही भाषा का प्रयोग है। शैली
. साहित्य के क्षेत्र में अपने विचारों को प्रकट करने के ढंग को शैली कहते हैं। यह भावपक्ष और कलापक्ष को जोड़ने का एक साधन है। इसके द्वारा हम कवि की मौलिकता की परीक्षा कर पाते हैं। “शैली" शब्द का तात्पर्य है ढंग। प्रत्येक कवि या लेखक की अपनी-अपनी शैली होती है। किसी की शैली भावपक्ष की अभिव्यंजना कराने में समर्थ होती हैं, तो किसी की शैली उसके पाण्डित्य प्रदर्शन का साधन होती है। कवि के कथन के इस ढंग को काव्य-शास्त्रीय दृष्टि से तीन प्रकार का कहा गया है - (क) वैदर्भी शैली (ख) गौड़ी शैली (ग) पांचालला शैली। 1. वैदर्भी शैली
इस शैली में कवि माधुर्य गुण के व्यंजक शब्दों का प्रयोग करता है। इसमें समासों की छटा दृष्टिगोचर होती है। यह शैली सरसता व मधुरता के कारण काव्य को आह्लादक बना देती है। इसमें कलापक्ष को भावपक्ष के अनुरूप ही प्रस्तुत किया जाता है।
आचार्यश्री ने अपने काव्यों में अधिकांशतया वैी-शैली का ही प्रयोग किया है। गौड़ी व पांचाली का प्रयोग अत्यल्प ही है। वसन्त-ऋतु