Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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वीरोदय का काव्यात्मक मूल्यांकन
1. चित्तारम्भक, जैसे हाव-भाव आदि। 2. गात्रारम्भक, जैसे लीला, विलास-विच्छिति आदि । 3. वागारम्भक, जैसे आलाप, विलाप, संलाप आदि।
4. बुद्ध्यारम्भक, जैसे रीति, वृत्ति आदि । व्यभिचारी भाव
लोक में आलम्बन व उद्दीपन कारणों से रत्यादि भाव के उद्बुद्ध होने पर जो क्रीड़ा, चपलता, औत्सुक्य, हर्ष आदि भाव साथ में उत्पन्न होते हैं, उन्हें लोक में सहकारी-भाव तथा काव्य-नाट्य में व्यभिचारी-भाव कहते हैं। इनका दूसरा नाम संचारी-भाव भी है। काव्य या नाट्य में इनकी यह संज्ञा इसलिये है कि वे विभाव तथा अनुभावों द्वारा अंकुरित एवं पल्लवित सामाजिक के रत्यादि स्थायीभावों को सम्यक रूप से पुष्ट करने का संचरण (व्यापार) करते हैं। भरतमुनि ने इनकी संख्या 33 कही है
__निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दैन्य, चिन्ता, मोह, स्मृति, धृति, क्रीड़ा, चपलता, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, सुप्त, विबोध, अमर्ष, अवहित्थ, उग्रता, मति, व्याधि, उन्माद, मरण, त्रास व वितर्क। स्थायीभाव
विभाव, अनुभाव, व्यभिचारीभाव रस के निमित्त कारण हैं। स्थायीभाव उपादान कारण है। स्थायीभाव मन के भीतर स्थायी रूप से रहने वाला प्रसुप्त संस्कार है, जो अनुकूल आलम्बन तथा उद्दीपन रूप उद्बोधक सामग्री को प्राप्त कर अभिव्यक्त होता है और हृदय में अपूर्व आनन्द का संचार करता है। इस स्थायीभाव की अभिव्यक्ति ही रसास्वाद-जनक या रस्यमान होने से 'रस'-शब्द से बोध्य होती है। आठ प्रकार के स्थायीभाव साहित्य-शास्त्र में माने गये हैं। काव्य-प्रकाशकार ने इनकी गणना इस प्रकार की है -
रति हासश्च शोकाश्च क्रोधोत्साहो भयं तथा। जुगुप्सा विस्मयश्चेति स्थायीभावा प्रकीर्तिताः ।।24