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वीरोदय का काव्यात्मक मूल्यांकन
किसी राज्य के संचालन में जो स्थिति सम्राट और सामन्तों की होती है। काव्यों में वही स्थिति प्रधानरस और सहायक रसों की होती है। प्रधानरस को ही अंगीरस कहा जाता है। अन्य सहायक रस इसके अंगरस होते हैं। उत्तम कवि यह प्रयास करते हैं कि उनके काव्य को पढ़कर पाठक एक रस का अच्छी प्रकार आनन्द उठा सके, इसलिए वे सहायक रसों को इस प्रकार उपस्थित करते हैं कि उनसे मिलने वाला आनन्द, अंगीरस से मिलने वाले आनन्द को कम न करे।
वीरोदय महाकाव्य आद्योपान्त शान्तरस प्रधान महाकाव्य है। शान्तरस के अतिरिक्त भी अन्य कुछ रसों के मिश्रित रूप का चित्रण भी प्रस्तुत काव्य में मिलता है।
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पुरूषार्थों में से चतुर्थ पुरूषार्थ ही मानव-जीवन का साध्य है। धर्म, अर्थ व काम इन तीन पुरूषार्थों की पराकाष्ठा विषय-भोगों के प्रति विरक्ति उत्पन्न करती है और मनुष्य उन्हें विनाश-शील समझने लगता है। काव्यों की यह विशेषता है कि उनमें अंगीरस के रूप में शान्तरस का ही प्रयोग हुआ है; क्योंकि चतुर्थ पुरूषार्थ मोक्ष ही उनका साध्य है। भव्य पुरूष किसी निमित्त को पाकर वैराग्य को प्राप्त हो जाते हैं और तपश्चरण आदि के द्वारा मोक्ष को प्राप्त करते हैं। शान्तरस का प्रयोग
इस काव्य के नायक भगवान महावीर के हृदय में स्थित शम नामक स्थायीभाव विशिष्ट वातावरण में प्रबुद्ध होकर शान्तरस का रूप धारण करता है। क्षण-भंगुर संसार इस रस का आलम्बन-विभाव है। लोगों की स्वार्थपरता, धर्मान्धता, इत्यादि उद्दीपन-विभाव हैं। त्याग की इच्छा, तपश्चरण की ओर उन्मुख होना इत्यादि अनुभाव है। निर्वेद, स्मृति इत्यादि व्यभिचारी भाव हैं। वीरोदय महाकाव्य में शान्तरस के कुछ उद्धरण इस प्रकार हैं -
(क) भगवान महावीर पिता के विवाह-प्रस्ताव का विरोध करते हुए समझाते हैं -