________________
वीरोदय का काव्यात्मक मूल्यांकन
219
अहो पशूनां धियते यतो बलिः श्मसानतामञ्चति देवतास्थली । यमस्थली वाऽतुलरक्तरञ्जिता विभाति यस्याः सततं हि देहली | 13 || एकः सुरापानरतस्तथा वत पलंकषत्वात्कवरस्थली कृतम् । केनोदरं कोऽपि परस्य योषितं स्वसात्करोतीतरकोणनिष्ठितः ।। 14 || कुतोऽपहारो द्रविणस्य दृश्यते तथोपहारः स्ववचः प्रपश्यते । परं कलत्रं ह्नियतेऽन्यतो हटाद्विकीर्यते स्वोदरपूर्तये सटा ।। 15 || - वीरो.सर्ग.9 ।
आज लोग दूसरे के रक्त व मांस से अपनी पिपासा एवं क्षुधा को शान्त करना चाहते हैं। संसार में यही स्वार्थ-परायणता दृष्टिगोचर हो रही है। धूर्त लोगों का कहना है कि बकरे की बलि से जगदम्बा प्रसन्न होती है । यदि माता अपने ही पुत्र का खून पीने लगे, तो यह वैसा ही होगा जैसे रात्रि में सूर्य का उदय होना । स्वार्थी मनुष्य अपनी स्त्री के पुत्र के लोभ में बकरी के पुत्र का हनन कर रहा है।
संसार में जिसे देखो वही अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगा हुआ है । मन्दिरों की पवित्र भूमि पशुओं की बलि से शमशान की ही श्रेणी में पहुँच रही है। उन मन्दिरों की देहली रक्त से रंजित होकर यमलोक जैसी लग रही है।
1. हास्य रस
वीरोदय में हास्यरस का केवल एक उदाहरण मिलता है। देवगण भगवान महावीर के जन्माभिषेक हेतु कुण्डलपुर जा रहे थे। मार्ग में इन्द्र के ऐरावत हाथी ने सूर्य को कमल समझ कर अपनी सूँड से उठा लिया, पर उसकी अतिशय उष्णता का अनुभव कर सूँड को हिलाकर उसे छोड़ भी दिया। उसकी इस चेष्टा से देवगण हंसने लगे ।
अरविन्दधिया दधद्रविं पुरनैरावण उष्णसच्छविम् । धुतहस्ततयात्तमुत्यजन्ननयद्वास्यमहो सुरव्रजम् ।। 10 ।।
- वीरो.सर्ग. 7 ।