Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
इसमें श्लोक को वितान और मण्डप में लिखने के पश्चात् स्तम्भों और मंच में लिखा जाता है। इसके प्रथम दो चरण मण्डप और वितान में है। तत्पश्चात् तृतीय चरण दाहिने स्तम्भ से मंच की ओर गया है। चतुर्थ चरण मंच से होता हुआ बायें स्तम्भ में लिखा गया है।
वीरोदय महाकाव्य में आचार्य श्री ने अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, रूपक, दृष्टान्त आदि अलंकारों के प्रयोग में अपनी काव्य-प्रतिभा का अनूठा परिचय दिया है। वसन्त, शरद तथा वर्षा-ऋतु के प्राकृतिक सौन्दर्य निरूपण में अपहुति अलंकार का प्रयोग कवि की श्लाघनीय लेखनी का प्रतिफल है। रसानुभूति
रसात्मकता काव्य का प्राण है। रसानुभूति के माध्यम से ही सामाजिकों को कर्तव्याकर्त्तव्य का उपदेश हृदयंगम कराया जाता है। इसीलिए कान्ता-सम्मित उपदेश को काव्य का प्रमुख प्रयोजन माना गया है। वीरोदयकार इस तथ्य से पूरी तरह अवगत थे। इसलिए उन्होंने अपने काव्य में श्रृंगार से लेकर शान्त तक सभी रसों की मनोहारी व्यंजना की है। 'रस-शब्द' की प्राचीनता वेदों से उपलब्ध है। लौकिक रस एवं काव्य जगत के रस में महान भेद है तो भी देद में रस शब्द का उल्लेख सोमरस के अर्थ में किया गया है।
'दधानः कलशे रसम् ऋग्वेद' 9/63/12
वैदिक साहित्य में काव्य जगत में प्रकाशमान रस का भी स्थान है। यहाँ वह आनन्दार्थ में भी अभिव्यक्त है। वैदिक-साहित्य में रस-भावादि शब्दों का यद्यपि उल्लेख अवश्य है तथापि साहित्यिक सम्प्रदाय में इसके स्वरूप आदि के निर्णय का श्रेय सर्वप्रथम नाट्यशास्त्र प्रणेता आचार्य भरत-मुनि को ही है। नाट्य-शास्त्र के छठे-सातवें अध्याय में रस का वितृत विवेचन है। इसकी निष्पत्ति के सम्बन्ध में भरत मुनि का सूत्र इस प्रकार है -
'विभावानुभाव-व्यभिचारिसंयोगाद्रस-निष्पत्तिः ।