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वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
19. संकर अलंकार
लक्षण
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'अविश्रान्तिजुषामात्मन्यंगांगित्वं तु संकरः ' 120
अपने स्वरूप मात्र में जिसकी विश्रान्ति न हो, उनका अंगांगिभाव होने पर संकर अलंकार होता है। वीरोदय में आचार्यश्री ने अलंकारों का साक्षेप प्रयोग किया है, जो संकर अलंकार कहलाते हैं।
उदाहरण
वाणिक्पथस्तूपितरत्नजूटा हरि - प्रियाया इव केलिकूटाः । बहिष्कृतां सन्ति तमां हसन्तस्तत्राऽऽपदं चाऽऽपदमुल्लसन्तः ।। 18 ।। - वीरो.सर्ग. 2 ।
विदेह देश के नगरों में बाजारों की दुकान के बाहर थोड़ी-थोड़ी दूर पर रत्नों के स्तूपाकार ढ़ेर लगाये गये थे, जो ऐसे प्रतीत होते थे मानों बहिष्कृत आपदाओं का उपहास - सा करते हुए लक्ष्मी के क्रीड़ा पर्वत हैं । प्रस्तुत श्लोक में स्तूपाकार रत्न के ढ़ेरों की उपमा लक्ष्मी के क्रीड़ा पर्वतों से की गई है। इसके साथ ही यहाँ क्रियोत्प्रेक्षा भी है । यह उत्प्रेक्षा की सहायिका है । अतः परस्पर अंगांगिभाव होने से यहाँ संकर अलंकार है । चित्रालंकार
आचार्य श्री ज्ञानसागर जी ने अपने काव्यों में शब्दालंकार व अर्थालंकारों के अलावा चित्रालंकार भी प्रयुक्त किये हैं। वीरोदय में भी उन्होंने गोमूत्रिका बन्ध, यानबन्ध, पद्मबन्ध, तालवृत्तबन्ध चित्रालंकारों का प्रयोग किया है।
1. गोमूत्रिकाबन्ध
रमयन् गमयत्वेष वाङ्मये समयं मनः ।
नमनागनयं द्वेष - धाम व समयं जनः ।। 37 ।।
- वीरो.सर्ग. 22 ।
गोमूत्रिकाबन्ध बनाने की विधि यह कि उसमें श्लोक की प्रथम पंक्ति में पहले, तीसरे, पाँचवें सातवें, नवें इत्यादि विषम अक्षरों को रखा जाता है और दोनों पंक्तियों के बीच दूसरे, चौथे, छठे, आठवें इत्यादि सम