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वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन वाणी बोलता है, धर्म, अर्थ, और काम का सेवन इस रीति से करता है कि वे एक दूसरे में बाधक नहीं होते, लज्जाशील होता है, सदआहार-विहार से युक्त होता है, सदा सज्जनों की संगति में रहता है और शास्त्रज्ञ, कृतज्ञ, दयालु, पापभीरू और जितेन्द्रिय होता है। जैन-गृहस्थ के आठ मूलगुण होते हैं। अहिंसा, सत्य अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरग्रिह का एकदेश पालन तथा मांस, मधु और मदिरा का सर्वथा त्याग इन्हें ही मूलगुण कहा जाता है। मांस खाना, प्राणियों को मारना, दूसरों को स्वामित्व वाली वस्तु का अपहरण करना इत्यादि निंद्य कार्य संसार में किसी भी प्राणी के लिए करने योग्य नहीं है। पंचाणुव्रत
जैनदर्शन में मुनियों के अट्ठाईस मूलगुण और गृहस्थों के बारह व्रत निर्धारित है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह- इन पांच गुणों का स्थूलरूप से एक देश त्याग करना अणुव्रत कहलाता है, और सर्वदेश त्याग करना महाव्रत कहा जाता है। गृहस्थों/श्रावकों को अणुव्रत और मुनियों को महाव्रत कहे गये हैं। 1. अहिंसाणुव्रत
___ मन, वचन काय, कृत, कारित, अनुमोदना से संकल्प-पूर्वक किसी त्रस जीव को नहीं मारना अहिंसाणुव्रत कहलाता है। रत्नकरण्डक श्रावकाचार में (53) में इसका स्वरूप इस प्रकार बताया है - मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना से संकल्प के द्वारा त्रस-जीवों का घात नहीं करता है, उसे “स्थूल-वध-विरमण" कहते हैं। अहिंसाणुव्रत का यह परिपूर्ण लक्षण है। उत्तरकाल में भी इसमें कुछ घटाने या बढ़ाने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई, किन्तु सर्वार्थसिद्धि में त्रस जीवों के प्राणों का घात न करने वाले को अहिंसाणुव्रती कहा है। तत्त्वार्थवार्तिक में त्रिया पद जोड़कर मन, वचन, काय या कृत, कारित, अनुमोदना का निर्देश कर दिया गया है, किन्तु संकल्प का उल्लेख उसमें भी नहीं।' 2. सत्याणुव्रत
आ. समन्तभद्र, ने रत्नकरण्डक में लिखा है, जो स्थूल झूठ न तो