Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
View full book text
________________
200 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
कवि ने राजा के प्रताप को अग्नि कहा है। उपमेय व उपमान में तादात्म्य सम्बन्ध स्थापित किया है। अतः यहाँ रूपक अलंकार है। वसन्त-ऋतु के वर्णन में रूपक का एक अन्य उदाहरण प्रस्तुत हैमुकुलपाणिपुटेन रजोऽब्जिनी दृशि ददाति रूचाम्बुजजिदृशाम्। स्थलपयोजवने स्मरधूर्तराड् ढरति तद्धृदयद्रविणं रसात् ।। 34।।
-वीरो.सर्ग.6। गुलाब और कमल के पुष्पों वाले उस वन में अपनी शोभा से कमल को जीतने वाली स्त्रियों के नेत्रों में अपने मुकुलित हस्त के दोने से कमलिनी पुष्प-पराग रूपी धूल डाल रही है और कामदेव रूपी धूर्तराज अवसर पाते ही उनके हृदय-रूपी धन को चुरा रहा है।
प्रस्तुत श्लोक में मुकुलपट, पराग, कामदेव और हृदय का क्रमशः हाथ के दोने, धूल, धूर्तराज और धन से अभेद स्थापित किया गया है। इसलिए यहाँ रूपक अलंकार है। 6. उत्प्रेक्षा - कवि ने महाकाव्य में उत्प्रेक्षा अलंकार को व्यापक स्थान दिया है। आचार्य मम्मट के अनुसार
लक्षण - 'संभावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत्।'
उपमेय की उपमान के साथ एक रूपता की सम्भावना उत्प्रेक्षा अलंकार कहलाती है। राजा सिद्धार्थ की समृद्धिशीलता और यशस्विता के सम्बन्ध में कवि की उत्प्रेक्षा इस प्रकार है। हे तात! जानूचितलम्बबाहो ङ्गविमुञ्चेत्तनुजा तवाहो। संभास्वपीत्थं गदितुं नृपस्य कीर्तिः समुद्रान्तमवाप तस्य ।। 11।।
-वीरो.सर्ग.3। समुद्र को सम्बोधित करते हुए कवि कहते हैं कि तुम्हारी पुत्री लक्ष्मी घुटनों तक लम्बी भुजाओं वाले राजा सिद्धार्थ के शरीर का आलिंगन करना सभाओं में भी नहीं छोड़ती। उसके इसी व्यवहार को बताने के लिए