Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
View full book text
________________
164 वीरोदय महाकाव्य और म. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन द्रव्य निरूपण
गुण और पर्यायों को प्राप्त होने वाले द्रव्य के मूल छः भेद हैं - (1) जीव, (2) पुद्गल, (3) धर्म, (4) अधर्म, (5) आकाश और (6) काल । ये छह द्रव्य ज्ञेय या प्रमेय कहलाते हैं। इनमें जीव, पुद्गल और काल अनेक भेद स्वरूप हैं और धर्म, अधर्म एवं आकाश ये तीन द्रव्य अनेक भेदरूप न होकर एक--एक अखण्ड द्रव्य हैं। गतेनिमित्तं स्वसु-पुद्गलेभ्यः धर्म जगद्-व्यापिनमेतकेभ्यः । अधर्ममेतद्विपरीतकार्य जगाद सम्वेदकरोऽर्हकार्यः।। 37 ।।
-वीरो.सर्ग.19। जीव और पुद्गल द्रव्यों को गमन करने में जो निमित्त बनता है, उसे धर्मद्रव्य कहते हैं। इससे विपरीत जीव और पुद्गल के ठहरने में सहायक (निमित्त) कारण को अधर्म-द्रव्य कहते हैं। ये दोनों ही द्रव्य सर्व जगत् में व्याप्त हैं, ऐसा विश्व-ज्ञायक अर्हदेव ने कहा है। जो समस्त द्रव्यों को अपने भीतर अवकाश देता है उसे आकाशद्रव्य कहते हैं। जो सर्व द्रव्यों के परिवर्तन कराने में निमित्त कारण होता है, उसे कालद्रव्य कहते हैं। इस प्रकार यह समस्त जगत षट्-द्रव्यमय जानना चाहिए। यथानभोऽवकाशाय किलाखिलेभ्यः कालः परावर्तनकृत्तकेभ्यः । एवं तु षड्-द्रव्यमयीयमिष्टिर्यतः समुत्था स्वयमेव सृष्टिः ।। 38 ।।
-वीरो.सर्ग.19। अनेकान्त व स्याद्वाद
भगवान महावीर ने कहा है कि जो केवल उत्पाद, व्यय या ध्रौव्य रूप ही वस्तु को मानते हैं, वे वस्तु के यथार्थ स्वरूप को न जानने के कारण अज्ञानी ही हैं। कोई एक रेखा (लकीर) न स्वयं छोटी है और न बड़ी। यदि उसी के पास उससे छोटी रेखा खींच दी जाय, तो वह पहली रेखा बड़ी कहलाने लगती है और उसी के दूसरी ओर बड़ी रेखा खींच दी जाये, तो वह छोटी कहलाने लगती है। इसी प्रकार अपेक्षा-विशेष से वस्तु