Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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वीरोदय का स्वरूप
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घटः पदार्थश्च पटः पदार्थः शैत्यान्वितस्यास्ति घटेन नार्थः । पिपासुरभ्येति यमात्मशक्त्या स्याद्वादमित्येतु जनोऽपि भक्त्या ।। 15 ।। - वीरो.सर्ग. 19 ।
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द्रव्य की अपेक्षा वस्तु नित्य है और पर्याय की अपेक्षा अनित्य है। यदि वस्तु को सर्वथा कूटस्थ नित्य माना जाय, तो उसमें अर्थक्रिया नहीं बनती है। यदि सर्वथा क्षण-भंगुर माना जाय, तो उसमें "यह वही है"इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकता । अतएव वस्तु को कथञ्चित् नित्य और कथञ्चित् अनित्य मानना पड़ता है। भगवान महावीर का यही अनेकान्तवाद सिद्धान्त है ।
समस्ति नित्यं पुनरप्यनित्यं यत्प्रत्यभिज्ञाख्यविदा समित्यम् । कुतोऽन्यथा स्याद् व्यवहारनाम सूक्तिं पवित्रामिति संश्रयामः ।। 21 । । - वीरो.सर्ग. 19 ।
इन परस्पर विरोधी तत्त्वों को देखने से यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक पदार्थ में अनेक धर्म हैं और इसी अनेक धर्मात्मकता का दूसरा नाम अनेकान्त है !
घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक - प्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ।। - आप्तमीमांसा, पद्य 59 |
द्रव्य लक्षण
जो पदार्थ अपनी पर्यायों को क्रमशः प्राप्त होता है, वह द्रव्य है । द्रव्य के 'सद्रव्यलक्षणं' और 'गुणपर्ययवद्' ये दो लक्षण प्रसिद्ध हैं। द्रव्य एक अखण्ड पदार्थ है और वह अनेक कार्य करता है। इस कारण कार्य से अनुमित कारण रूप शक्त्यंशों की कल्पना की जाती है तथा इन शक्त्यंशों को ही गुण कहते हैं। इन गुणों का समुदाय ही द्रव्य है और जो द्रव्य है, वही गुण है । द्रव्य से भिन्न गुण नहीं और गुणों से भिन्न द्रव्य नहीं । 'गुणपर्ययवद्द्रव्यम् ।'