Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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वीरोदय का स्वरूप
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चर्चा विद्यमान थी। अतः उनके मुख से पहला वाक्य - 'उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवई वा' निकला था। अर्थात् वस्तु-प्रतिक्षण उत्पन्न होती है, नष्ट होती है और ध्रुव रहती है। ये तीन अवस्थायें जिसमें रहती हैं, वही ज्ञेय है, वस्तु है, पदार्थ है। नित्यत्व अनित्यत्व ध्रौव्यत्व (सत्)
जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त है, वही सत् है। जो सत् है वही द्रव्य है। उत्पाद उत्पत्ति को, व्यय विनाश को और ध्रौव्य अवस्थिति को कहते हैं। इन तीनों का परस्पर में अविनाभाव है। उत्पाद के बिना व्यय नहीं होता, व्यय के बिना उत्पाद नहीं होता और ध्रौव्य (स्थिति) उत्पाद और व्यय के बिना नहीं होता। प्रवचनसार में कहा है - ण भवो भंगविहीणो भंगो वा णत्थि संभव-विहीणों। उप्पादो वि य भंगो ण विणा धोव्वेण अत्थेण।।
-प्रवचनसार गाथा 100। जो उत्पाद है, वही व्यय है, जो व्यय है वही उत्पाद् है और जो उत्पाद-व्यय है, वही स्थिति है, तथा जो स्थिति है, वही उत्पाद् व्यय है।
तीर्थकर महावीर ने अपने इस त्रिपदी मातृका वाक्य द्वारा वस्तु के एकान्त रूप नित्यत्व और अनित्यत्व (क्षणिकत्व) की समीक्षा की। उन्होंने उद्घोषित किया कि इस विश्व में न कोई वस्तु सर्वथा नित्य है और न कोई सर्वथा क्षणिक है। दोनों सम-स्वभाव हैं। जैसे आकाश द्रव्यरूप से नित्य है, उसी प्रकार दीपक भी नित्य है और जिस प्रकार पर्याय से दीपक क्षणिक है, उसी प्रकार आकाश भी क्षणिक है। प्रत्येक सत् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है। 'उत्पादव्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत्'
उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पर्यायों में होते हैं और पर्यायें द्रव्य में स्थित हैं किसी भाव अर्थात् सत्य का अत्यन्त नाश नहीं होता और किसी अभाव अर्थात् असत् का उत्पाद नहीं होता। सभी पदार्थ अपने गुण और पर्याय रूप से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त हैं। यही त्रैकालिक सत् है। प्रत्येक सत् परिणमनशील होने से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है। दृव्य