Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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वीरोदय का स्वरूप
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संसारी अवस्था में कर्मरूप मल से आवृत्त होने के कारण आत्मा का विशुद्ध स्वरूप प्रकट नहीं हो पाता। कर्ममल के पूर्ण रूप से पृथक होने पर आत्मा का विशुद्ध स्वरूप प्रकट हो जाता है। इसीलिए मुक्त आत्मा को परमात्मा भी कहा गया है। अहिंसा - जैनधर्म अहिंसा-प्रधान है। अहिंसा की सूक्ष्मता से विवेचना जितनी जैनधर्म ने की उतनी अन्य किसी ने नहीं की है। अहिंसा एक निषेधात्मक शब्द है - 'न हिंसेति अहिंसा' अर्थात् हिंसा नहीं करना अहिंसा है। इसमें हिंसा का निषेध प्रतिपादित है। शास्त्रों में हिंसा की व्याख्या करते हुए कहा गया है –'प्रमत्त-योगात्प्राण-व्यपरोपणं हिंसा' – तत्त्वार्थसूत्र. अ. 7 सूत्र- 13 ।
अर्थात् प्रमाद के योग से प्राणों के व्यपरोपण को हिंसा कहते हैं। इसका सामान्य अर्थ है असावधानी पूर्वक किये गये आचरण या व्यवहार के कारण दूसरे जीवों या प्राणियों का जो घात या प्राण-हरण होता है, वह हिंसा कहलाता है। द्रव्य और भाव के भेद से हिंसा दो प्रकार की होती है। किसी जीव को मारना या सताना "द्रव्य-हिंसा" है और उसके निमित्त से रागादि भावों की उत्पत्ति होकर जो भाव-प्राणों का घात होता है वह "भावहिंसा" है। आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा है -
अप्रार्दुभावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। तेषामोवोत्पत्ति-हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।। 44 ।। युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि। न हि भवति जातु हिंसा प्राण-व्यपरोपणादेव।। 45 ।।
-पुरूषार्थसिद्ध-युपाय । अर्थात् अपने शुद्धोपयोग प्राण का घात रागादिक भाव से होता है। अतएव रागादिक भावों का अभाव ही अहिंसा है और शुद्धोपयोग रूप प्राणघात होने से उन्हीं रागादिक भावों का सद्भाव हिंसा है। योग्य आचरण करने वाले सन्त-पुरूष के रागादि भावों के बिना केवल प्राण-पीड़न से हिंसा कदापि नहीं होती। दूसरी अपेक्षा भी हिंसा दो प्रकार से होती है।