Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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184 वीरोदय महाकाव्य और म. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन गुण-दोष – जिस प्रकार मनुष्यों में गुण-दोष होते हैं, उसी प्रकार काव्यों में भी ये पाये जाते हैं। पर जिस प्रकार 'पूज्य ऋषिजन' गुणों को ग्रहण करने का और दोषों से बचने का उपदेश देते हैं, उसी प्रकार साहित्य काव्य – शास्त्री भी अच्छे कवि को उपदेश देते हैं कि वह भी यथा-सम्भव अपने काव्य में माधुर्यादि गुणों का आराधन करे और दुष्क्रमत्वादि दोषों से बचे।
आचार्य मम्मट ने ऐसे "शब्द अर्थ युगल को काव्य माना है जो दोष रहित हो, गुण सहित हो चाहे कहीं अलंकार की योजना भले ही न हो, 'तददोषौ शब्दार्थों सगुणावनलङ्कृती पुनः क्वापि।'
साहित्य दर्पणकार आचार्य विश्वनाथ ने काव्य की परिभाषा देते हुये लिखा है "वाक्यं रसात्मकं काव्यम्” जो उक्ति सहृदय को भावमग्न कर दे, मन को छू ले, हृदय को आन्दोलित कर दे, उसे "काव्य" कहते हैं। जब मानव-चरित, मानव-आदर्श एवं जगत के वैचित्र्य को कलात्मक रीति से प्रस्तुत किया जाता है, तब ऐसी उक्ति की रचना होती है। कलात्मक रीति का प्राण है, भाषा की लाक्षणिकता एवं व्यंजकता। भाषा को लाक्षणिक एवं व्यंजक बनाने के उपाय हैं :
अन्योक्ति, प्रतीक-विधान, उपचार-वक्रता, अलंकार-योजना, बिम्ब-योजना, शब्दों के सन्दर्भ विशेष में व्यंजनात्मक गुम्फन आदि । शब्द-सौष्ठव एवं लयात्मकता भी कलात्मक रीति के अंग हैं। इन सबको आचार्य कुन्तक ने “वक्रोक्ति" नाम दिया है। सुन्दर कथन का नाम ही "काव्य-कला" हैं। रमणीय कथन-प्रकार में ढला कथ्य "काव्य" कहलाता है।
'रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्' (पण्डितराज जगन्नाथ) 'सारभूतो ह्यर्थः स्वशब्दानभिधेयत्वेन प्रकाशितः सुतरामेव शोभामावहति', ध्वन्यालोग-4) ये उक्तियाँ इस तथ्य की पुष्टि करती है।