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वीरोदय का काव्यात्मक मूल्यांकन प्रचक्षते ।' काव्यादर्श में वक्रोति सम्प्रदाय के प्रतिष्ठापक, आचार्य कुन्तक ने ‘सालंकारस्य काव्यता' कहकर काव्य में अलंकार को महत्त्व दिया है। शरीर के शोभातिशायी कटक, कुण्डल आदि की भाँति काव्य में अलंकार को भी शोभादायक माना है।'
__आचार्य आनन्दवर्धन ने अलंकार सम्प्रदाय के आचार्यों द्वारा प्रतिपादित अलंकार के अंगित्व पर आक्षेप प्रस्तुत करते हुये अलंकार को रसादि रूप काव्यात्मा का अंग रूप से होना स्वीकार किया है। अलंकार से काव्य की शोभा को प्रतिपादित करते हुए आचार्य भोजराज ने काव्य शोभाकर गुण, रसादि को भी अलंकार की संज्ञा से अभिहित किया है। आनन्दवर्धन तथा उनके अनुयायी अभिनवगुप्त, मम्मट आदि ने शरीर के बाह्य प्रसाधन कटक, कुण्डलादि की भाँति शब्दार्थ रूप काव्य शरीर में अलंकारों को मान्यता प्रदान की है।' अलंकार का लक्षण -
अलंकार शब्द "अलम्कार" से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ होता है आभूषण । अलंकार काव्य का शोभावर्धक धर्म है। अलंकृतिरलंकारः' अथवा “अलंक्रियतेऽनेन" और "अलंकरोति इति अलंकारः'' व्युत्पत्ति से निष्पन्न अलंकार शब्द सौन्दर्य या शोभादायक है। इसके अनुसार शरीर को विभूषित करने वाले अर्थ या तत्त्व का नाम अलंकार है। आचार्य मम्मट के अनुसार -
उपकुर्वन्ति तं सन्त येउंगद्वारेण जातुचित् । हारादिवदलंकारास्तेऽनुप्रासोपमादयः।। 67 ||
काव्य में विद्यमान अंगीरस को शब्द व अर्थ रूप अंग कभी-कभी उपकृत करते हैं वे अनुप्रासदि शब्दालंकार व उपमादि अर्थालंकार शरीर के शोभावर्धक हारादि के समान काव्य के अलंकार होते हैं। आचार्य सम्मट ने काव्य के लक्षण में ‘अनलंकृति पुनः क्वापि' कहकर कहीं-कहीं काव्य में अलंकार न रहने पर भी काव्यत्व की हानि नहीं मानी है। तथापि वृत्ति में उनके इस स्पष्टीकरण से कि 'सर्वत्र सालंकारो क्वचित् तु