Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
View full book text
________________
186
वीरोदय महाकाव्य और म. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन कथन की विशिष्ट पद्धति से आविर्भूत रमणीयता भी उसे आह्लादित करती है। यह विशिष्ट पद्धति ही “शैली" कहलाती है। इसमें गुम्फित भाषा काव्य-भाषा कहलाती है। भारतीय काव्य शाष्त्रीय कुन्तक ने इस शैली को "वक्रता" कहा है। अन्य काव्यशास्त्रियों ने इसे "चयन" (सिलेक्शन) और "विचलन" नाम दिये हैं। छन्द प्रयोग
काव्य में जिस प्रकार गुण और अलंकार का स्थान है, वैसे ही छन्द-योजना का भी प्रमुख स्थान होता है। छन्दों के बिना वेद-मन्त्रों का अध्ययन अध्यापन सम्भव नहीं है। वैदिक ज्ञान के लिये छन्दों का ज्ञान अनिवार्य है। इसलिए छन्द को वेद का पाद कहा गया है।
शिक्षा कल्पोऽथ व्याकरणं निरूक्तं छन्दसां चयः । ज्योतिषाययनं चैव पादाङ्गानि षडेव तु।।
इस प्रकार काव्य के पाद का आधार भी छन्द ही है। यथा पाद के बिना सर्व साधन सम्पन्न व्य क्त भी अवरूद्ध गति बन जाता है, अपनी आधार-भूमि से ही वंचित हा जाता है। तद्वत् छन्द के अभाव/ विषयानुरूप छन्द की योजना न होने से समग्र रस भावादि-सम्पन्न भी काव्य स्वाभाविक अभीष्ट, समुत्कृष्ट पद्धति में शिथिल प्रतीत होता है।
'छन्द'-शब्द 'छन्द'-धातु से असुन् प्रत्यय द्वारा निष्पन्न हुआ। इस शब्द का तात्पर्य ऐसे श्लोक से है जो श्रोता को प्रसन्न कर सके। काव्यमीमांसाकार राजशेखर ने 'रोमांणि छन्दांसि' कहकर छन्द को सर्व-व्यापी स्थान दिया।
__ श्लोकों को जब चरणों, वर्णों और मात्राओं के आकर्षक बन्धन में निबद्ध किया जाता है तब उनमें प्रवाह, सौन्दर्य व गेयता आ जाती है। फलस्वरूप पाठक व श्रोता जब ऐसे श्लोकों को पढ़ता या सुनता है, तब उसे मधुर संगीत सुनने जैसा आनन्द आता है और वह छन्दोबद्ध काव्य को पढ़ने या सुनने में ऐसा लीन हो जाता है कि अन्य सभी कार्यों को विस्मृत कर देता है। सफल कवि वही है जो अभीष्ट भाव के लिए तदनुरूप छन्दों