Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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176 वीरोदय महाकाव्य और म. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन
और जो ज्ञान इन्द्रिय, आलोक आदि की सहायता से उत्पन्न होता है, वह ज्ञान जैनागम में परोक्ष ही माना गया है। आत्मानमक्षं प्रति वर्तते यत् प्रत्यक्षमित्याह पुरूः पुरेयत् । रादिन्द्रियाद्यैरूपजायमानं परोक्षमाद्भवतीह मानम् ।। 21 ।।
-वीरो.सर्ग.201 __ "श्री वर्धमान स्वामी ने सर्वज्ञता को प्राप्त किया था"- यह बात केवल श्रद्धा का ही विषय नहीं है, अपितु इतिहास से भी प्रसिद्ध है। भगवान महावीर को दिव्य ज्ञानी और जन्मान्तरों का वेत्ता कहा गया है। उनके द्वारा प्रतिपादित अनेकान्त के मार्ग से ही लौकिक, दार्शनिक एवं आध यात्मिक । त की प्रवृत्ति समीचीन रूप से चल सकती है। भगवान महावीर का मोक्ष-गमन
मानव-जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है। मोक्ष का अर्थ है, बन्धनों का बिगलन (निर्बन्ध होना) छुटकारा प्राप्त करना । संसार के कोटि-कोटि जन को यह मुक्ति या आत्मा की स्वतन्त्रता तो अभीष्ट है, परन्तु पुरूषार्थ की ओर प्रवृत्ति अभीष्ट नहीं है।
तीर्थंकर महावीर ने अथक तप, संयम और साधना के मार्ग पर चलकर योग और कषायों के निरोध द्वारा निर्वाण की प्राप्ति की। वे स्वयं कामनाओं से लड़े, विषय-वासनाओं पर विजय प्राप्त की, हिंसा को पराजित किया, असत्य को पराभूत किया तथा निर्वाण का मार्ग प्रशस्त किया।
महावीर इस धरती को ज्ञानामृत से सिंचन करते हुए पावापुर नामक स्थान में पधारे और वहाँ के मनोरम नामक वन के मध्य अनेक सरोवरों के बीच में मणिमय शिला पर विराजमान हुए। बिहार करना छोड़कर उन्होंने कर्मों की निर्जरा को वृद्धिंगत किया। जिनेन्द्रवीरोऽपि विबोध्य सन्ततं समन्ततो भव्यसमूहसन्ततिम्। प्रपद्य पावावनगरी गरीयसी मनोहरोद्यानवने तदीयके ।।
-हरिवंश पु. ज्ञा. सं. 66/15 ।